ख़ुदा की रहमत से, शायद कभी बदले मुक़द्दर।
लोगों के पत्थर पूजने का सबब समझ आया
जब से मेरा ख़ुदा हो गया है, वो एक पत्थर।
साक़ी से कहना, वो अपना मैकदा खुला रखे
दर्द ने फिर दस्तक दी है, दिल के दरवाजे पर।
बेचैनियों, बेकरारियों का मौसम है यहाँ
चैनो-सकूँ की मिलती नहीं, कहीं कोई ख़बर।
उम्र भर का रोग ले बैठोगे, एक पल की ख़ता से
हसीं लुटेरों की बस्ती में, थाम के रखो दिल-जिगर।
मुहब्बत के चमन में,चहके न ख़ुशियों की बुलबुल
कौन सैयाद आ बैठा है, लगी है किसकी नज़र ?
ख़ुद को मिटाने का जज़्बा भी होना ज़रूरी है
आसां नहीं होता ‘विर्क’ इस चाहत का सफ़र।
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दिलबागसिंह विर्क