दरवाजे पर देकर दस्तक, लौटती रही ख़ुशी
वाह-रे-वाह मेरी तक़दीर, तू भी ख़ूब रही।
हालातों को बदलने की कोशिशें करता रहा
हर बार हारा मैं, हर बार हाथ आई बेबसी।
कभी किसी नतीजे पर पहुँचा गया न मुझसे
अक्सर सोचता रहा, कहाँ ग़लत था, कहाँ सही।
जिन मसलों ने उड़ाई हैं अमनो-चैन की चिंदियाँ
उनमें कुछ मसले हैं नस्ली, बाक़ी बचे मज़हबी।
आपसी रंजिशों ने दी है सदियों की गुलामी हमें
भूल गए बीते वक़्त को, आग फिर लगी है वही।
कुछ सुन लेना होंठों से, कुछ समझ लेना आँखों से
ये दर्द भरी दास्तां, ‘विर्क’ कुछ कही, कुछ अनकही।
दिलबागसिंह विर्क