बुधवार, नवंबर 27, 2019

मैं अदना-सा इंसान हूँ

दुनिया के रस्मो-रिवाजों से अनजान हूँ 
मैं नाकाम हूँ तो इसलिए कि नादान हूँ। 

मैंने ख़ुद खरीदा है अपना चिड़चिड़ापन 
बेवफ़ाओं के बीच वफ़ा का क़द्रदान हूँ। 

छूटता ही नहीं वक़्त-बेवक़्त सच बोलना 
अपनी आदतों को लेकर बहुत परेशान हूँ।

हालात बदलने की तमन्ना तो है दिल में 
हुक्मरान ताक़तवर, मैं अदना-सा इंसान हूँ। 

बड़ा गहरा रिश्ता बन चुका है इनसे मेरा
आफ़तों का मेज़बान हूँ, कभी मेहमान हूँ। 

ख़ुशियों की बुलबुलें चहकती नहीं मेरे पास 
वक़्त की मार से ‘विर्क’ हो गया वीरान हूँ। 

दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

उम्दा ग़ज़़ल।

शुभा ने कहा…

वाह!!बहुत खूब!!

अनीता सैनी ने कहा…

बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीय
सादर

नीलांश ने कहा…

अच्छी गजल

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