जैसे सूरज उगने के बाद दिन ढले है
ऐसे क़िस्मत मेरी रोज़ रंग बदले है।
आख़िर बुझना ही होगा देर-सवेर इसे
दौरे-तूफ़ां में कब तलक चिराग़ जले है।
दिन-ब-दिन जवां हुई, इसका इलाज क्या
मेरे इस दिल में तेरी जो याद पले है।
न गवारा था मुझको अश्क बहाना लेकिन
इस तक़दीर पर कब किसी का ज़ोर चले है।
क़ियामत से भी बढ़कर होती है वो कसक
जब भी मेरा ये दिल दीवाना मचले है।
मंजिल से बढ़कर हुए है अहमियत सफ़र की
सुन ऐ ‘विर्क’, हर किसी को साहिल न मिले है।
दिलबागसिंह विर्क
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