बुधवार, मार्च 18, 2020

काग़ज़ के खेत


ग़म बोकर
सींचा आँसुओं से
कहकहों से सींची
ख़ुशियों की क्यारी
पकी जब खेती
शब्द उगे
नज्म, ग़ज़ल, गीत बनकर
बीज थे जुदा-जुदा पर
फसल की ख़ुशबू एक-सी थी
ये करिश्मा शायद
काग़ज़ के खेत का है
*****

18 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (20-03-2020) को महामारी से महायुद्ध ( चर्चाअंक - 3646 ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    आँचल पाण्डेय

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  2. कागजी जमीन पर उगी फ़सल कितने ही रंग दिखाती है एक नजर में.
    गजब की प्रस्तुती.
    नई रचना- सर्वोपरि?

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति

    Mere blog par aapka swagat hai.....

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-04-2020) को    "कोरोना से खुद बचो, और बचाओ देश"  (चर्चाअंक - 3658)    पर भी होगी। 
     -- 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  5. कागज की खेती
    बेहतरीन

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  6. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति | शारदा मिश्रा जी के एक बरसों पुराने गीत की पंक्तियां स्मरण करवा दीं इसने -
    हमने तो हर शब्द में ढाली अपनी प्रीत
    दुनिया को उसमें दिखीं कविता गज़लें गीत

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  7. बहुर सुंदर अभिव्यक्ति।

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  8. शीर्षक ही इतना जबर्दस्त है कि मुंह से अपने आप 'वाह' निकल गया... फिर रचना का तो कहना ही क्या...

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यहाँ तक पहुंचने के लिए आभार | आपके शब्द मेरे लिए बहुमूल्य हैं | - दिलबाग विर्क