सोमवार, अप्रैल 16, 2012

धुआँ ( कविता )

बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों की
ऊँची-ऊँची चिमनियों से
अक्सर निकलता ही रहता है
विषाक्त धुआँ  ।
यह धुआँ
विषाक्त होकर भी
उतना विषाक्त नहीं होता
जितना कि वो धुआँ
जो उठता है 
स्वार्थों की आग में
मानवता के जलने से ।
यह धुआँ
जहां गला घोटता है 
रिश्तों का,
मानव संबंधों का
वहीं कर देता है अँधा 
आदमी को ।

खेद तो यह है कि 
इस धुएँ को
इस आग को
रोकने की
कोई कोशिश नहीं हो रही 
किसी के भी द्वारा
कहीं भी हो-हल्ला नहीं
इसके खिलाफ
जबकि सब तरफ
शोर मचा हुआ है
फैक्ट्रियों से निकलने वाले
विषाक्त धुएँ  को 
रोकने के लिए । 

***********************

7 टिप्‍पणियां:

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सार्थक चिंतन दिलबाग भाई.... सुंदर रचना....
सादर बधाई।

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

कौन मचायेगा शोर?????????????
सभी के दिलों में तो आग है...सभी के दिलो से तो निकल रहा है धूआं!!!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

स्वार्थ की आग सब कुछ जला देती है ... उसका धुंवा मार देता है अपनों को भी ... गहरी सोच का प्रतीक है आप्पकी रचना ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सटीक और सार्थक प्रस्तुति!

udaya veer singh ने कहा…

मोहक ,विचारशील रचना आभार जी /

सदा ने कहा…

बहुत ही सार्थक बात कही है आपने इस अभिव्‍यक्ति के माध्‍यम से ..

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

धुआँ उठ रहा है
गनीमत है किसी
को दिख रहा है
बहेगा आंख से पानी
कहोगे तुम उस समय
धुआँ मिट रहा है।


बहुत सुंदर !!!

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