जिन्दगी को पिरोना चाहता हूँ ग़ज़ल में
भटक रहा हूँ मैं , इस तलाशे-साहिल में ।
कामयाब होकर लोग खुद बदल जाते हैं
वरना कब नशा होता है मंजिल में ।
अगर पत्थर दिल है वो तो भी क्या है
दिल जैसा कुछ तो होगा उसके दिल में ।
शायद मिले मुझे मौका कुछ कहने का
अभी तक जले है शमां उनकी महफिल में ।
आदमियों में कातिलों को क्या ढूंढना
आदमी ढूंढता हूँ मैं हर कातिल में ।
मुहब्बत ने विर्क ये हुनर सिखा दिया
मजा आने लगा है अब हर मुश्किल में ।
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मेरा गाँव
जैसा मेरे बचपन के दिनों में था
वैसा अब नहीं रहा
वह खो गया है कहीं
आज के गाँव में ।
जो पुराना गाँव था
दो हिस्से थे उसके
एक हिस्से में थे
रिहायशी घर
दूसरे हिस्से में थी
खेती की जमीन ।
आज ये दोनों हिस्से
मिल चुके हैं इस कद्र
कि अब पता नहीं चलता
गाँव खेतों में आ बसा है
या फिर
खेत गाँव में आ घुसे हैं ।
पहले गाँव के जोहड़ में
कश्तियों-सी घूमती थी भैंसे
और जोहड़ किनारे लगे
पीपल के पेड़ के नीचे
जमती थी महफ़िल
चलते थे ताश के दौर
तब मुश्किल से ढूंढ पाते थे
बैठने को जगह
लेकिन अब वीरानी है वहां पर
सूख चूका है जोहड़
नहीं जमती
पीपल के नीचे महफ़िल
गाँव के नजारे
लुप्त हो चुके हैं गाँव से ।
सिर्फ गाँव ही नहीं बदला
गाँव के साथ बदले हैं
गाँव के लोग भी
पहले-सा भाईचारा
पहले-सा प्रेम भाव
खो गया है कहीं
लड़ाई
टांग-खिचाई
अब हिस्सा बन चुके हैं गाँव का ।
मेरे बचपन का गाँव
मेरे बचपन की तरह
निकल चुका है हाथ से
वह अब सिर्फ यादों में है
उसे हकीकत बनाने की जरूरत
नहीं महसूस होती किसी को
लेकिन
शहर-सा बने गाँव पर
आंसू बहाता है
उदास खड़ा पीपल का पेड़ ।
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भाषा जोडती
लोगों को आपस में
तोडती नहीं ।
रखो शिष्टता
चाहे समर्थन हो
चाहे विरोध ।
सच के लिए
नहीं बोलोगे तुम
पछताओगे ।
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'अरे कल्लू मजदूरी पर चलेगा' - मैंने कल्लू से पूछा, जो अपने झोंपड़े के आगे अलाव पर तप रहा था. वैसे आज ठंड कोई ज्यादा नहीं थी. हाँ, सुब्ह-सुब्ह जो ठंडक फरवरी के महीने में होती है, वह जरूर थी. कल्लू ने मेरी ओर गौर से देखा और कहा - ' अभी बताते हैं साहिब ' और इतना कहकर वह खड़ा हो गया और झोंपड़े के दरवाजे पर जाकर आवाज दी - ' अरे मुनिया की माँ, घर में राशन है या ... ?' उसके प्रश्न के उत्तर में अंदर से आवाज आई - ' आज के दिन का तो है. '
यह सुनते ही कल्लू, जो मुझे लग रहा था कि वह काम पर चलने को तैयार है, पुन: अलाव के पास आकर बैठते हुए बोला - 'नहीं, साहिब आज हम नहीं जाएगा.'
'क्यों ?'
क्यों क्या ? बस नहीं जाएगा. ठण्ड के दिन में काम करना क्या जरूरी है ?'
' अगर घर में राशन न होता तो ?'
' तब और बात होती, अब आज के दिन का तो है न.
उसके इस उत्तर को सुनकर मैं नए मजदूर की तलाश में चल पड़ा.
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