मेरा गाँव
जैसा मेरे बचपन के दिनों में था
वैसा अब नहीं रहा
वह खो गया है कहीं
आज के गाँव में ।
जो पुराना गाँव था
दो हिस्से थे उसके
एक हिस्से में थे
रिहायशी घर
दूसरे हिस्से में थी
खेती की जमीन ।
आज ये दोनों हिस्से
मिल चुके हैं इस कद्र
कि अब पता नहीं चलता
गाँव खेतों में आ बसा है
या फिर
खेत गाँव में आ घुसे हैं ।
पहले गाँव के जोहड़ में
कश्तियों-सी घूमती थी भैंसे
और जोहड़ किनारे लगे
पीपल के पेड़ के नीचे
जमती थी महफ़िल
चलते थे ताश के दौर
तब मुश्किल से ढूंढ पाते थे
बैठने को जगह
लेकिन अब वीरानी है वहां पर
सूख चूका है जोहड़
नहीं जमती
पीपल के नीचे महफ़िल
गाँव के नजारे
लुप्त हो चुके हैं गाँव से ।
सिर्फ गाँव ही नहीं बदला
गाँव के साथ बदले हैं
गाँव के लोग भी
पहले-सा भाईचारा
पहले-सा प्रेम भाव
खो गया है कहीं
लड़ाई
टांग-खिचाई
अब हिस्सा बन चुके हैं गाँव का ।
मेरे बचपन का गाँव
मेरे बचपन की तरह
निकल चुका है हाथ से
वह अब सिर्फ यादों में है
उसे हकीकत बनाने की जरूरत
नहीं महसूस होती किसी को
लेकिन
शहर-सा बने गाँव पर
आंसू बहाता है
उदास खड़ा पीपल का पेड़ ।
********
जैसा मेरे बचपन के दिनों में था
वैसा अब नहीं रहा
वह खो गया है कहीं
आज के गाँव में ।
जो पुराना गाँव था
दो हिस्से थे उसके
एक हिस्से में थे
रिहायशी घर
दूसरे हिस्से में थी
खेती की जमीन ।
आज ये दोनों हिस्से
मिल चुके हैं इस कद्र
कि अब पता नहीं चलता
गाँव खेतों में आ बसा है
या फिर
खेत गाँव में आ घुसे हैं ।
पहले गाँव के जोहड़ में
कश्तियों-सी घूमती थी भैंसे
और जोहड़ किनारे लगे
पीपल के पेड़ के नीचे
जमती थी महफ़िल
चलते थे ताश के दौर
तब मुश्किल से ढूंढ पाते थे
बैठने को जगह
लेकिन अब वीरानी है वहां पर
सूख चूका है जोहड़
नहीं जमती
पीपल के नीचे महफ़िल
गाँव के नजारे
लुप्त हो चुके हैं गाँव से ।
सिर्फ गाँव ही नहीं बदला
गाँव के साथ बदले हैं
गाँव के लोग भी
पहले-सा भाईचारा
पहले-सा प्रेम भाव
खो गया है कहीं
लड़ाई
टांग-खिचाई
अब हिस्सा बन चुके हैं गाँव का ।
मेरे बचपन का गाँव
मेरे बचपन की तरह
निकल चुका है हाथ से
वह अब सिर्फ यादों में है
उसे हकीकत बनाने की जरूरत
नहीं महसूस होती किसी को
लेकिन
शहर-सा बने गाँव पर
आंसू बहाता है
उदास खड़ा पीपल का पेड़ ।
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6 टिप्पणियां:
आज कल सच में पहले वाले गावं नहीं रहे ...सब कुछ बदल चुका हैं इस आधुनिककरण की अंधी आंधी में ...
Badalte dour ko behatreen andaaz mein pesh kiya hai ... Lajawab rachna ...
गाँव के बदलने की कहानी ... सुंदर रचना
बेहतरीन !
़़़़़़
मुझे लग रहा था
बस मेरा खोया है
अच्छा तो तेरा
भी खोया है
पता नहीं किस
किस का खोया है
लेकिन खो गया है
गाँव कस्बा और शहर
किसे पड़ी है लेकिन
क्योंकि अभी तक
ना तो अखबार में
ये खबर आई है
ना ही किसी ने
थाने में कोई
एफ आई आर
ही कराई है !!
गाँवों की गलियाँ, चौबारे,
याद बहुत आते हैं।
कच्चे-घर और ठाकुरद्वारे,
याद बहुत आते हैं।।
छोड़ा गाँव, शहर में आया,
आलीशान भवन बनवाया।
मिली नही शीतल सी छाया,
नाहक ही सुख-चैन गँवाया।
बूढ़ा बरगद, काका-अंगद,
याद बहुत आते हैं।।
अपनापन बन गया बनावट,
रिश्तेदारी टूट रहीं हैं।
प्रेम-प्रीत बन गयी दिखावट,
नातेदारी छूट रहीं हैं।
गौरी गइया, मिट्ठू भइया,
याद बहुत आते हैं।।
भोर हुई, चिड़ियाँ भी बोलीं,
किन्तु शहर अब भी अलसाया।
शीतल जल के बदले कर में,
गर्म चाय का प्याला आया।
खेत-अखाड़े, हरे सिंघाड़े,
याद बहुत आते हैं।।
चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की,
कब का नाता तोड़ चुके हैं।
मटकी में का ठण्डा पानी,
सब ही पीना छोड़ चुके हैं।
नदिया-नाले, संगी-ग्वाले,
याद बहुत आते हैं।।
घूँघट में से नयी बहू का,
पुलकित हो शरमाना।
सास-ससुर को खाना खाने,
को आवाज लगाना।
हँसी-ठिठोली, फागुन-होली,
याद बहुत आते हैं।।
बहुत भावपूर्ण रचना सच्चाई बयान करती हुई दिल ढूँढता है फिर वही गाँव के रात दिन
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