बुधवार, जनवरी 30, 2013
सोमवार, जनवरी 28, 2013
अग़ज़ल - 49
और क्या मिलना है , यादों को संजोने से
बहल जाता है दिल, घड़ी-दो-घड़ी रोने से ।
अब हुआ अहसास, ठोकर लग ही जाती है
जरूरत से कुछ ज्यादा वफादार होने से ।
सागर की खामोशियों पर एतबार न करना
सकूं मिलता है इसे कश्तियाँ डूबोने से ।
फरेबी दुनिया छोडती ही नहीं फरेब को
दिल साफ़ हुआ नहीं करता जिस्म धोने से ।
जरूरी तो है इंसानियत को निभाना मगर
फुर्सत कहाँ है रिवाजों का बोझ ढोने से ।
काश ! छोटी-सी बात समझ लेती दुनिया
कुछ भी न होना अच्छा है बुरा होने से ।
कशिश है, कसक है मगर विर्क रुसवाई नहीं
निराला ही मजा है सफर में मंजिल खोने से ।
दिलबाग विर्क
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गुरुवार, जनवरी 24, 2013
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