सोमवार, जनवरी 28, 2013

अग़ज़ल - 49

और क्या मिलना है , यादों को संजोने से 
बहल जाता है दिल, घड़ी-दो-घड़ी रोने से ।

अब हुआ अहसास, ठोकर लग ही जाती है 
जरूरत से कुछ ज्यादा वफादार होने से ।

सागर की खामोशियों पर एतबार न करना
सकूं मिलता है इसे कश्तियाँ डूबोने से । 

फरेबी दुनिया छोडती ही नहीं फरेब को 
दिल साफ़ हुआ नहीं करता जिस्म धोने से ।

जरूरी तो है इंसानियत को निभाना मगर  
फुर्सत कहाँ है रिवाजों का बोझ ढोने से ।

काश ! छोटी-सी बात समझ लेती दुनिया 
कुछ भी न होना अच्छा है बुरा होने से ।

कशिश है, कसक है मगर विर्क रुसवाई नहीं 
निराला ही मजा है सफर में मंजिल खोने से ।

दिलबाग विर्क 
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सोमवार, जनवरी 07, 2013

देश का न्याय

आदमी जिंस 
दुनिया है बाज़ार 
प्यार कहाँ है ?
कछुए से भी 
दौड़ में हार रहा 
देश का न्याय ।
एक कोढ़ है 
देश के जिस्म पर 
ये क्षेत्रवाद ।

देखते सब 
औरों की गलतियाँ 
अपनी नहीं ।

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