बात के मा 'ने बदलने के लिए बस काफी है वो
मेरे होंठों, तेरे कानों के बीच फ़ासिला है जो ।
ये बात और है, हमने चुन लिए अलग-अलग रास्ते
यूँ तो बचपन से हमें सिखाया गया था, मिलकर चलो ।
आदत बन गई है , राह चलती मुश्किलों को बुलाना
मालूम नहीं, किससे सीखा हमदम बनाना दर्द को ।
दिल के दरवाजे पर जब दस्तक देती है तेरी याद
लब खामोश हो जाते हैं और आँख पड़ती है रो ।
ख़ुशी बाँटना न चाहें हम, गम बँटाता नहीं कोई
झूठी लगती है ये बात, जो भी मिले उसे बाँट लो ।
किसे ठहराऊँ कसूरवार ' विर्क ' अपनी गलतियों के लिए
बारहा कहा था खुद से, चुप रहो, चुप रहो, चुप रहो ।
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - अंतर्मन
संपादक - अनिल शर्मा ' अनिल '
प्रकाशन - अमन प्रकाशन, धामपुर { बिजनौर }
प्रकाशन वर्ष - 2007
3 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल..हरेक शेर बहुत उम्दा...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-08-2014) को “आजादी की वर्षगाँठ” (चर्चा अंक-1707) पर भी होगी।
--
हमारी स्वतन्त्रता और एकता अक्षुण्ण रहे।
स्वतन्त्रता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (16-08-2014) को “आजादी की वर्षगाँठ” (चर्चा अंक-1707) पर भी होगी।
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हमारी स्वतन्त्रता और एकता अक्षुण्ण रहे।
स्वतन्त्रता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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