शनिवार, जनवरी 24, 2015

ऋतुराज बसन्त

सजी दुल्हन-सी धरा, फूलों का श्रृंगार है
भँवरे गुनगुनाने लगे, आई बहार है ।

हर पल मुस्करा रहा
नया तराना गा रहा
जीवन बेल पर देख
ये खुशियाँ सजा रहा
झूम उठा है तन-मन, छाया खुमार है ।

खुशनुमा मौसम हुआ
ज़िन्दगी का लो मजा
साकार हुई लगती
इक खूबसूरत दुआ
नाचो, जश्न मनाओ तुम, मिला उपहार है ।

 संदेश ऋतुराज का
विर्क सुना रही धरा
उठा ले कलम अपनी
इसको तू भी फैला
दिल से दिल तक फैला, प्यार ही प्यार है ।

दिलबाग विर्क
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सोमवार, जनवरी 05, 2015

ये कैसे उसूल हमारे

लगते हैं अब तुम्हें जो दोस्त बहुत प्यारे 
सच बोलोगे तो दुश्मन हो जाएँगे सारे । 
हालातों को बदलने के लिए कुछ करना होगा 
आख़िर कब तक जीएँगे मुकद्दर के सहारे । 

कितना दुश्वार है जीना, ये उनसे पूछो 
वहशियत ने छीन लिए जिनकी आँख के तारे । 

बातें छोड़ो, मुहब्बत से खोखली है दुनिया 
ये हाल है यहाँ, आदमी को आदमी मारे । 

भूख हड़ताल के असली मा'ने बताएगा वह तुम्हें 
हर रोज़ एक वक़्त खाकर जो ज़िंदगी गुजारे । 

दूसरों के लिए कुछ और, खुद के लिए कुछ और 
  क्यों है ऐसा ' विर्क ', ये कैसे उसूल हमारे । 

दिलबाग विर्क 
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काव्य संग्रह - हिन्द की ग़ज़लें 
संपादक - देवेन्द्र नारायण दास 
प्रकाशन - मांडवी प्रकाशन, गाज़ियाबाद 
प्रकाशन वर्ष - 2008 
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