‘ नहीं, नहीं ! मैंने कुछ नहीं किया | ’
“ कुछ नहीं किया ? अरे तूने तो सरेआम कत्ल किया है नैतिकता का | ”
‘ लेकिन वो मेरी मजबूरी थी | ’
“ मजबूरी ? कैसी मजबूरी ? ”
‘ वहां नैतिकता का पालन करना मेरे चरित्र और करियर दोनों के लिए घातक सिद्ध हो सकता था | ’
“ तुम्हारे चरित्र और करियर के लिए ? ”
‘ हाँ, मेरे चरित्र और करियर के लिए | ’
“ वो कैसे ? ”
‘ यह समाज भले ही पुरुष प्रधान कहलाता हो लेकिन आज के दौर में पुरुषों को औरतों से बचकर रहना पड़ता है | जब हालात इतने नाजुक हों तब मेरा उस लड़की के पास रुकना, उसे लिफ्ट देना खतरे से खाली कैसे था ? ’
“ खतरा ! अरे वह लडकी तो खुद मुसीबत में फँसी हुई थी, भला उससे तुम्हें क्या खतरा हो सकता था , वह बेचारी तुम्हारा क्या बिगाड़ सकती थी ? ”
‘ क्या भरोसा है कि वह सचमुच में मुसीबत में फँसी हुई थी या ... ’
“ वह खुद कह तो रही थी | ”
‘ उसके कहने से क्या होता है | ’
“ क्यों ? क्या उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता ? ”
‘ विश्वास ! जिसे हम जानते ही नहीं उस पर विश्वास कैसा | ’
“ उसका चेहरा भी तो बता रहा था कि वह वास्तव में ही मजबूर है | ”
‘ चेहरा ! नकाबों के दौर में चेहरे पढ़ने की गलती तो कोई मनोवैज्ञानिक भी नहीं कर सकता फिर भला मैं कैसे विश्वास करता और क्यों करता ? ’
“ चलो माना कि वह मजबूर नहीं थी फिर भी उसे लिफ्ट देने में हर्ज़ क्या था ? ”
‘ हर्ज़ क्यों नहीं था ? मैं भी जवान था, वह भी जवान थी और जिस जगह वह मुझे मिली थी वह एक सुनसान जगह थी, ऐसे में मेरा उसके पास एक पल भी रुकना मुझे बदनाम कर सकता था | ’
“ तुम्हारे कहने का मतलब है कि जवान लडकियाँ इतनी बुरी होती हैं कि उनके पास रुकना मात्र ही बदनामी का कारण है | ”
‘ नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूँ मगर उस अनजान लडकी के पास रुकना बदनामी का कारण जरूर बन सकता था | ’
“ क्यों , ऐसा क्या था उस लडकी में जिसके कारण तुम डरे हुए हो ? ”
‘ क्या था, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन आजकल के माहौल को देखते हुए यह संभावना जरूर थी कि वह लुटेरों के किसी गिरोह की सदस्य हो या फिर खुद ही आवारा किस्म की लडकी हो जो पहले मासूमियत दिखाकर लोगों की सहानुभूति प्राप्त करती हो और बाद में ब्लैकमेल करके धन ऐंठती हो | ’
“ क्या ऐसा भी हो सकता है ? ”
‘ हो सकता है नहीं बल्कि होता है और अनेक लोग ऐसी खूबसूरत और चालाक औरतों के जाल में फँसकर अपने पैसे, कपड़े, जूते आदि जो भी पास होता है वह सब गंवा बैठते हैं और अगर कोई विरोध करता है तो यह लडकियाँ सती-सावित्री का ढोंग करके समाज की ऐसी सहानुभूति पाती हैं कि राम-सा पुरुष रावण या दुशासन सिद्ध हो जाता है | ’
“ यदि ऐसा होता है तो तुमने ठीक किया, लेकिन ..... ”
‘ लेकिन-वेकिन छोडो, यहाँ पर ऐसी घटनाएं रोज ही होती हैं | ऐसी बातों पर ज्यादा सोचना ठीक नहीं | ’
इन तर्कों के सहारे मैंने अपने दिल को चुप कराया | यह मेरा दिल ही था जो मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ा रहा था कि मुझे अनजाने रास्ते पर मिली अनजान लड़की की मदद करनी चाहिए थी | उस लड़की की आँखों में आँसू थे | कपड़े पसीने से तर-ब-तर थे | वह हाँफ भी रही थी | लगता था कि वह काफी दूर से भागकर आई थी | सड़क के बीचो-बीच आकर उसने मुझे गाड़ी रोकने के लिए विवश कर दिया था और बड़ी मिन्नतें करते हुए कहा था – ‘ मुझे शहर तक ले जाएं क्योंकि मेरे पीछे कुछ गुंडे पड़े हुए हैं जो मेरी इज्जत लूटना चाहते हैं | मैं छुपते-छुपाते बड़ी मुश्किल से यहाँ तक आई हूँ | अगर आप मुझे शहर तक पहुँचा दें तो मैं बच जाऊँगी | ’
उसकी दशा देखकर, उसकी बातों से पसीजकर मेरा दिल मेरे दिमाग से बगावत कर बैठा था | वह मुझे बार-बार कह रहा था कि इस बेचारी मजबूर लड़की पर तरस खाओ, इसकी मदद करो, लेकिन दिमाग इससे सहमत नहीं था और मैंने दिमाग की बात मानते हुए उस हाथ जोड़े खड़ी लड़की को बड़ी मुश्किल से दूर धकलते हुए गाड़ी चला दी | मेरा दिल मुझे बार-बार कोस रहा था कि तूने गलत किया है, तूने नैतिकता का कत्ल किया है, लेकिन मेरा दिमाग उसकी बात सुनने को तैयार नहीं था बस दिल के कहने पर मैंने एक बार शीशे से पीछे देखा जरूर, वह रोती-बिलखती हुई हताश होकर वहीं बैठ गई थी | दिल ने मुझे फिर कहा अब भी अपनी गलती सुधार ले और लौटकर उसकी मदद कर मगर दिमाग नहीं माना | मैंने गम-सुम-सा होकर गाड़ी की गति तेज कर दी |
मेरा सारा दिन तनाव में बीता और मैं बड़ी मुश्किल से अपने दिल को समझा पाया था कि ऐसी औरतों पर विश्वास करना खतरे से खाली नहीं | मेरा दिल मेरे तर्कों से चुप तो हो गया था लेकिन शायद वह संतुष्ट नहीं हुआ था | दो दिन बाद जब मैंने समाचार-पत्र में खबर का शीर्षक - “ सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या ” पढ़ा तो मेरा दिल उछलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ | मैंने जल्दी-जल्दी पूरी खबर पढ़ी | लड़की की लाश सड़क के पास पेड़ों के झुरमुट में से मिली थी और यह वही स्थान था जहाँ मुझे वह लड़की मिली थी | मेरी आँखों के सामने उस रोती-बिलखती बेबस लड़की की तस्वीर घूमने लगी | मेरा दिल मुझे झकझोरते हुए कह रहा था – “ क्यों ! मैंने तुझसे कहा था न कि वह लड़की मासूम है और अगर तूने उस शरीफ लड़की की मदद की होती, उस पर तरस खाया होता तो उसकी इज्जत भी बच गई होती और वह खुद भी | तूने उसकी मदद न करके गुनाह किया है | जिन दरिंदों ने उस बेचारी को नोच-नोचकर मार डाला उन से बड़ा गुनहगार तू है | असली गुनहगार तू है | ”
एक क्षण के लिए मुझे लगा “ हाँ, मैं गुनहगार हूँ ” | एक क्षण के लिए मेरा दिमाग मेरे दिल से सहमत हो गया लेकिन अगले ही क्षण वह फिर अपने तर्कों के साथ उपस्थित था | उसके पास कई उदाहरण थे | मैं सोच रहा था कि अगर वह शरीफ न होकर शराफ़त का ढोंग रचने वाली कोई आवारा लड़की होती तो क्या होता ? संभवत: मैं लुट गया होता | संभवत: अगले दिन के समाचार पत्र की सुर्खी होती – “ सुनसान जगह पर एक बदमाश ने एक मासूम लड़की से बलात्कार करने की कोशिश की | ” ऐसी दशा में पूरा समाज मेरे पीछे पड़ जाता ; मीडिया मसाला लगा-लगाकर इस खबर को सुनाता, काल्पनिक वीडियो बना-बनाकर दिखाता ; महिलाएं आन्दोलन करती हुई सडकों पर उतर आती | मैं तो सलाखों के पीछे होता ही, मेरे बीवी-बच्चों का जीना भी दूभर हो गया होता | मैं तो बस यह बात सोचकर उसकी मदद किये बिना उसे बीच रास्ते अकेला छोड़ आया था कि अपनी सुरक्षा अधिक जरूरी है | मैंने तो सिर्फ औरत के उस स्त्रीत्व से अपना बचाव किया था जिसे कुछ बुरी औरतों ने अपना हथियार बना रखा है | मैंने तो समाज और मीडिया के उस रूप से अपना बचाव किया था जो सिर्फ एक पहलू को ही देखता है और इस बचाव में अगर किसी शरीफ लड़की की इज्जत लुट गई , जिन्दगी चली गई तो इसमें मेरा क्या गुनाह है ?
मैं इस किस्से को महज इत्तेफाक कहकर भूलने की जितनी कोशिश कर रहा हूँ, मेरा दिल इसे उतना ही याद दिला रहा है ; मानवता, नैतिकता की दुहाई दे रहा है और बार-बार दिल और दिमाग में युद्ध छिड़ रहा है | मेरे भीतर एक द्वंद्व खड़ा हो गया है क्योंकि यदि मेरा दिल सही है तो गलत मेरा दिमाग भी नहीं | आदमियत के नाते, नैतिकता के नाते अगर दिल सही है तो मौजूदा हालातों को देखते हुए दिमाग भी सही है | मेरा दिल और मेरा दिमाग, दोनों सही हैं इसलिए एक अनुत्तरित सवाल मेरे सामने मुंह बाए खड़ा है – “ क्या मैं गुनहगार हूँ ? ”
दिलबागसिंह विर्क
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