अहम् की पट्टी
स्वार्थ के फाहे रखकर
जब बाँध लेते हैं हम
सोच की आँखों पर
तब जम जाती है
रिश्तों पर बर्फ
दम घुट जाता है रिश्तों का
दिल में गर्माहट रखकर
बढाते हैं जब हाथ
मिट जाती हैं सब दूरियां
पिघल जाती है बर्फ
जीवित हो उठते हैं रिश्ते
प्यार की संजीविनी पाकर
रिश्तों पर बर्फ
जमने और पिघलने का
कोई मौसम नहीं होता
अविश्वास, अहम्, स्वार्थ
जमा देते हैं बर्फ
विश्वास, वफा, प्यार
पिघला देते हैं इसे |
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2 टिप्पणियां:
बहुत ही उम्दा...सत्य
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-07-2016) को "आदमी का चमत्कार" (चर्चा अंक-2390) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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