न डरो, न घबराओ, बस करते रहो अपना काम
फिर मिलने दो, जो मिले, इनाम हो या इल्ज़ाम।
बस्ती-ए-आदम में दम तोड़ रही है आदमीयत
लगानी ही होगी हमें फ़िरक़ापरस्ती पर लगाम।
ख़ुदा तक पहुँच नहीं और आदमी से नफ़रत है
बता ऐसे सरफिरों को मिलेगा कौन-सा मुक़ाम।
लुभाती तो हैं रंगीनियाँ मगर सकूं नहीं देती
बसेरों को लौट आएँ परिंदे, जब ढले शाम।
आदमी की आदतों ने सबमें ज़हर घोला है
सियासत ही नहीं, अब मुहब्बत भी है बदनाम।
शायद इसका नशा कुछ देर बाद रंग लाएगा
बस पीते-पिलाते रहना ‘विर्क’ वफ़ा के जाम।
दिलबागसिंह विर्क
8 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना
badhiya!!
सुंदर
खूबसूरज ग़ज़ल
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-09-2020) को "स्वच्छ भारत! समृद्ध भारत!!" (चर्चा अंक-3837) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सुन्दर
सुन्दर कविता
आदरणीय, बहुत अच्छी गजल, एक-एक शेर उम्दा! यह शेर बहुत अच्छा लगा:
आदमी की आदतों ने सबमें ज़हर घोला है
सियासत ही नहीं, अब मुहब्बत भी है बदनाम।--ब्रजेन्द्रनाथ
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