जब भी बरसता है आँखों का सावन तेरा नाम लेकर
मैं अपना ग़म भुलाता हूँ अक्सर, हाथों में जाम लेकर।
क्यों अब तक वापस नहीं आया वो, कोई बताए मुझे
किस तरफ़ गया था क़ासिद, मुहब्बत का पैग़ाम लेकर।
तू तो सौदागर ठहरा, आ ये सौदा कर ले मुझसे
वफ़ाएँ मेरे नाम कर दे, मेरी जान का इनाम लेकर।
न जाने क्यों तुझे गवारा न हुआ मेरे साथ चलना
तुझे ख़ुशियों की सुबह दी थी, ग़म की शाम लेकर।
ये दौलत, ये शौहरत के मुक़ाम मुबारक हों तुम्हें
प्यार बिना क्या करूँगा, ऐसे बे’माने मुक़ाम लेकर।
इस बारे में कुछ न पूछो ‘विर्क’, बता न पाऊँगा
जीना कैसा लगता है, अश्कों-आहों के इनाम लेकर।
दिलबागसिंह विर्क
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (24-08-2017) को "नमन तुम्हें हे सिद्धि विनायक" (चर्चा अंक 2706) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर रचना....
वाह।
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