क्या पाया मुहब्बत में ख़ुद को क़ुर्बान करके
चले गए वो तो दिल के चमन को वीरान करके।
लोगों को मौक़ा मुहैया करवा दोगे हँसने का
कुछ न मिलेगा तुम्हें अपने ग़म का ब्यान करके।
पागल हो, आँखों के इशारे पर एतबार करते हो
मुकरने वाले मुकर जाते हैं यहाँ ज़ुबान करके।
यही दस्तूर है ज़माने का, तुम संभलना सीखो
बड़ी क़ीमत वसूलते हैं लोग एहसान करके।
लोगों की सूरतो-सीरत में फ़र्क़ है बहुत
लूटते हैं ये, ईमानदारी का बखान करके ।
यूँ किनारा कर लोगे ज़िंदगी से, सोचा न था
रख दिया तुमने तो ‘विर्क’ हमें हैरान करके।
दिलबागसिंह विर्क
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