क्या पाया मुहब्बत में ख़ुद को क़ुर्बान करके
चले गए वो तो दिल के चमन को वीरान करके।
लोगों को मौक़ा मुहैया करवा दोगे हँसने का
कुछ न मिलेगा तुम्हें अपने ग़म का ब्यान करके।
पागल हो, आँखों के इशारे पर एतबार करते हो
मुकरने वाले मुकर जाते हैं यहाँ ज़ुबान करके।
यही दस्तूर है ज़माने का, तुम संभलना सीखो
बड़ी क़ीमत वसूलते हैं लोग एहसान करके।
लोगों की सूरतो-सीरत में फ़र्क़ है बहुत
लूटते हैं ये, ईमानदारी का बखान करके ।
यूँ किनारा कर लोगे ज़िंदगी से, सोचा न था
रख दिया तुमने तो ‘विर्क’ हमें हैरान करके।
दिलबागसिंह विर्क
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2 टिप्पणियां:
बहुत खूब विर्क जी क्या अंदाज़े बयां है। भई वाह !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-12-2017) को "गालिब के नाम" (चर्चा अंक-2832) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
क्रिसमस हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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