हाले-दिल आया न जब मेरे होंठों पर
उतरा तब यह काग़ज़ पर अल्फ़ाज़ बनकर।
इसकी दुश्वारियों का अब हुआ है एहसास
रौशन करना चाहा था ज़माना, ख़ुद जलकर।
बड़ी शातिर है दुनिया, मैं नादां ठहरा
शतरंजी चालों को न कर पाया बेअसर ।
गिरना, टूटना तो कुछ बुरा न था लेकिन
अपने ही हाथों लुटा है मेरा मुक़द्दर ।
मेरी कमजोरियाँ ही सबब बनी और
ताक़तवर होता चला गया वो सितमगर।
वक़्त के साथ बदले ‘विर्क’ अहमियत
ख़ुदा बन जाता है, तराशा हुआ पत्थर ।
दिलबागसिंह विर्क
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2 टिप्पणियां:
बहुत सटीक ढंग से सामाजिक बिडंनाओं का पिरोया है आपने ,,,
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-05-2018) को "अक्षर बड़े अनूप" (चर्चा अंक-2981) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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