कभी उम्मीद बँधाए और
कभी आह भरे
न पूछ मुझसे,
ये दिल नादां क्या-क्या करे।
कभी सोचे तदबीर से
पलट दूँगा ज़माना
कभी ये दिल अपनी ही
तक़दीर से डरे।
कब नसीब होती है
हमें बिस्तर पर नींद
कभी मैख़ाने में कटी
रात, कभी राह में गिरे।
इन आँखों को भूलता
ही नहीं वो मंज़र
चाँद-से चेहरे पर
घटा से गेसू बिखरे।
कभी-कभार तो गुज़रती
होगी तुम पर भी
जो हर दिन, हर रात हम दीवानों पर गुज़रे।
ये तो ‘विर्क’ इस दिल की ख़ता है वरना
सारी दुनिया गवाह है,
कब थे हम बुरे।
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