बुधवार, सितंबर 26, 2018

दर्दमंद भी होता है, दिल अगर आवारा होता है

जैसे माँ को अपना बच्चा बहुत दुलारा होता है 
ऐसे ही अपनों का दिया हर ज़ख़्म प्यारा होता है। 

ये सच है, ये यादें जलाती हैं तन-मन को मगर 
तन्हाइयों में अक्सर इनका ही सहारा होता है। 

क़त्ल करने के बाद दामन पाक नहीं रहता इसलिए 
ख़ुद कुछ नहीं करता, सितमगर का इशारा होता है। 

ये बात और है, तोड़ दिया जाता है बेरहमी से 
दर्दमंद भी होता है, दिल अगर आवारा होता है। 

दूर तक देखने वाली नज़र क़रीब देखती ही नहीं 
कई बार अपने क़दमों के पास ही किनारा होता है। 

ख़ुदा का नाम ले, खाली पेट सो जाना आसमां तले 
इस बेदर्द दुनिया में ‘विर्क’ ऐसे भी गुज़ारा होता है।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, सितंबर 19, 2018

अनोखा अंदाज़े-बयां है उनके पास

घटा से गेसू, सुर्ख़ लब, नज़र कमां है उनके पास 
देखो तो मेरी मौत का सारा सामां है उनके पास। 

ताबिशे-आफ़ताब में रुख़सारों पर मोती-सा पसीना 
तुम भी नमूना देख लो, हुस्न रक़्साँ है उनके पास। 

चाँद हैं वो आसमां के, चकोरों की उन्हें कमी नहीं 
वो हैं सबसे दूर मगर, सारा जहां है उनके पास। 

ख़ामोश लब, झुकी नज़र, न हाथ ही करें कोई इशारा 
कहें मगर बहुत कुछ, अनोखा अंदाज़े-बयां है उनके पास। 

मालूम नहीं यह, हमसफ़र बन पाएगा उनका या नहीं 
अभी तक तो मेरा यह दिल भी मेहमां है उनके पास। 

ख़ुदा सदा ही सलामत रखे ‘विर्क’ उनके शबाब को 
हम दुआओं की मै डालें, कासा-ए-जां है उनके पास। 

बुधवार, सितंबर 12, 2018

मिले हैं ज़ख़्म मुझे सौग़ात की तरह

चाहा था जिनको दिलो-जां से मैंने हयात की तरह 
उनसे ही मिले हैं ज़ख़्म मुझे सौग़ात की तरह। 

तक़दीरों और तदबीरों के रुख अब बदल चुके हैं 
वो आए थे मेरी ज़िंदगी में, वारदात की तरह। 

जब-तब मेरी ख़ुशियों को उजाड़ने चले आते हैं 
ये मेरे अश्क भी हैं, बेमौसमी बरसात की तरह। 

ताउम्र चुभते रहते हैं सीने पर नश्तर बनकर 
ग़म ज़िंदगी के होते नहीं, बीती रात की तरह। 

हाले-मुहब्बत जानना है तो सुनो, बताता हूँ 
ये है ख़्वाब में महबूब से मुलाक़ात की तरह। 

वो अगर आज़माते मुझे तो पता चलती असलियत 
ख़ालिस मिलनी थी मेरी वफ़ा ‘विर्क’ वफ़ात की तरह। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, सितंबर 05, 2018

दुनिया के सवालों का जवाब न आया

उन्हें क्या कहें गर हमारे काम उनका शबाब न आया 
ये हमारी ख़ता थी, जो हमें पहनना नकाब न आया। 

हमें तो बैचैन कर रखा है उनके ख़्यालों-ख़्वाबों ने 
ख़ुशक़िस्मत हैं वो अगर उन्हें हमारा ख़्वाब न आया। 

अब हम सज़ा-ए-तक़दीर का गिला करते भी तो कैसे 
बिन ज़ख़्मों के जो दर्द मिला, उसका हिसाब न आया। 

ख़ुद को समेट लिया है मैंने ख़ामोशियाँ ओढ़कर 
करता भी क्या, दुनिया के सवालों का जवाब न आया। 

आफ़तें सहने के हो चुके हैं इस क़द्र आदी कि अब 
बेमज़ा-सा लगे वो सफ़र, जिसमें गिर्दाब न आया। 

दौलत से बढ़कर हो जाए आदमी की अहमियत 
आज तक ‘विर्क’ ऐसा कोई इंकलाब न आया।

दिलबागसिंह विर्क 
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