ये हमारी ख़ता थी, जो हमें पहनना नकाब न आया।
हमें तो बैचैन कर रखा है उनके ख़्यालों-ख़्वाबों ने
ख़ुशक़िस्मत हैं वो अगर उन्हें हमारा ख़्वाब न आया।
अब हम सज़ा-ए-तक़दीर का गिला करते भी तो कैसे
बिन ज़ख़्मों के जो दर्द मिला, उसका हिसाब न आया।
ख़ुद को समेट लिया है मैंने ख़ामोशियाँ ओढ़कर
करता भी क्या, दुनिया के सवालों का जवाब न आया।
आफ़तें सहने के हो चुके हैं इस क़द्र आदी कि अब
बेमज़ा-सा लगे वो सफ़र, जिसमें गिर्दाब न आया।
दौलत से बढ़कर हो जाए आदमी की अहमियत
आज तक ‘विर्क’ ऐसा कोई इंकलाब न आया।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन शिक्षक दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
बहुत सुंदर|
निमंत्रण विशेष :
हमारे कल के ( साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक 'सोमवार' १० सितंबर २०१८ ) अतिथि रचनाकारआदरणीय "विश्वमोहन'' जी जिनकी इस विशेष रचना 'साहित्यिक-डाकजनी' के आह्वाहन पर इस वैचारिक मंथन भरे अंक का सृजन संभव हो सका।
यह वैचारिक मंथन हम सभी ब्लॉगजगत के रचनाकारों हेतु अतिआवश्यक है। मेरा आपसब से आग्रह है कि उक्त तिथि पर मंच पर आएं और अपने अनमोल विचार हिंदी साहित्य जगत के उत्थान हेतु रखें !
'लोकतंत्र' संवाद मंच साहित्य जगत के ऐसे तमाम सजग व्यक्तित्व को कोटि-कोटि नमन करता है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
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