ग़म का अज़ीज़, ख़ुशी से बेगाना कर गई
तेरी चाहत हमें इस क़द्र दीवाना कर गई।
न दिल को तसल्ली दे सके, न गिला कर सके
तेरी ही तरह बहार भी, मुझसे बहाना कर गई।
चाहकर भी आज़ाद हो न पाएँगे उसके असर से
बीती ज़िंदगी नाम मेरे, एक फ़साना कर गई।
टुकड़े-टुकड़े हुआ दिल, रोए हम लहू के आँसू
तेरी याद ये वारदात वहशियाना कर गई।
मेरी वफ़ा ने देखो, किया है ये कैसा सलूक
आफ़तों की शाख पर मेरा आशियाना कर गई।
मुहब्बत की ख़ुशबू ऐसी फैली है ज़िंदगी में
अंदाज़ मेरा ‘विर्क’ ये शायराना कर गई।
दिलबागसिंह विर्क
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1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (28-12-2018) को "नव वर्ष कैसा हो " (चर्चा अंक-3199)) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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