किसे अपना कहें हम, किसे बेगाना
मुहब्बत का दुश्मन है सारा ज़माना।
उसने सीखे नहीं इस दुनिया के हुनर
चाँद को न आया अपना दाग़ छुपाना।
मरहम की बजाए नमक छिड़का उसने
जिस शख़्स को था मैंने हमदम माना।
गम ख़ुद-ब-ख़ुद दौड़े चले आए पास
हमने चाहा जब भी ख़ुशी को बुलाना।
देखो, दुश्मनी खरीद लाया हूँ मैं
बड़ा महँगा पड़ा मुझे दोस्त बनाना।
कमजोरियां, लापरवाहियाँ, बुराइयाँ
हुई जगजाहिर, न आया मुझे छुपाना।
मैं तो अक्सर हारा हूँ ‘विर्क’ इससे
आसां नहीं, पागल दिल को समझाना।
दिलबागसिंह विर्क
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5 टिप्पणियां:
वाह विर्क भाई वाह।
मकता कमाल का है साब
दूसरा शेर... वाह।
कुछ पंक्तियां आपकी नज़र 👉👉 ख़ाका
.. देखो दुश्मनी खरीद लाया हूं ....मैं बड़ा महंगा पड़ा दोस्त बनाना... इन पंक्तियों में ही सब कुछ समा गया बहुत कमाल का लिखा आपने
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को "चाँद ! तुम सो रहे हो ? " (चर्चा अंक- 3875) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आदरणीय दिलबाग सिंह विर्क जी, नमस्ते👏! बहुत अच्छी ग़ज़ल। हरएक शेर उम्दा!
देखो, दुश्मनी खरीद लाया हूँ मैं
बड़ा महँगा पड़ा मुझे दोस्त बनाना।
--ब्रजेन्द्रनाथ
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