गुरुवार, जून 30, 2011
हाइकु - 6
शनिवार, जून 25, 2011
अगज़ल - 21
आदमी कितना मजबूर था, आदमी कितना मजबूर है
कल पहुंच से चाँद दूर था, आज आदमियत दूर है |
मेरे गम के पीछे सिर्फ उनकी मतलबपरस्ती नहीं
मैं भी थोडा मतलबपरस्त था, ये मेरा कसूर है |
अपनी गलतियों को छुपाना आसां हो गया है इससे
तभी तो आजकल यहाँ , बेवफा शब्द बड़ा मशहूर है |
अगर बुरे हैं हालात तो, तंग है सोच भी लोगों की
इन दोनों ही चीज़ों का, एक-दूसरे पर असर जरूर है |
मुँह नोच लिया करते हैं लोग सच बोलने वालों का
झूठ हो चुका है हावी, सच्चाई किसे मंजूर है |
कोई सुनता ही नहीं यहाँ दर्द भरी पुकार किसी की
दिल हो चुके हैं पत्थर 'विर्क', तभी तो दुनिया बेनूर है |
दिलबाग विर्क
* * * * *
स्थान:
हरियाणा, भारत
गुरुवार, जून 23, 2011
कविता - 10
लेबल:
निर्णय के क्षण (कविताएँ)
स्थान:
हरियाणा, भारत
सोमवार, जून 20, 2011
महत्वाकांक्षा {भाग - 4}
गतांक से आगे
प्रश्न उठता है
क्यों किया राम ने
ऐसा अत्याचार
अपनी पत्नी के साथ ?
उस पत्नी के साथ
जिसने स्वेच्छा से
वल्कल धारण कर
चौदह वर्ष का वनवास काटा था ,
जिसने पति के कहने मात्र पर
अग्नि परीक्षा दी
बिना कोई किन्तु-परन्तु किए
तो इसका उत्तर
सिर्फ यही मिलता है
कि राम भी एक पति था
ऐसा पति
जो अधिकार समझता है अपना
पत्नी पर अत्याचार करने को .
राम का यह अत्याचार
पहला नहीं
अंतिम था .
पहले भी उसने
अत्याचार तो किया ही था
सीता की अग्नि परीक्षा लेकर .
सीता की अग्नि परीक्षा लेने वाला
वो न्यायप्रिय शासक
क्यों भूल गया था कि
विवाह का बंधन
विश्वास की नींव पर खड़ा है
शक की बुनियाद पर नहीं .
और सीता की अग्नि परीक्षा लेने से पहले
क्यों यह नहीं सोचा
उस शक्की सम्राट ने
कि यदि वह देख सकता है सीता को
शक की दृष्टि से
तो क्यों नहीं देख सकती
सीता भी उसे ऐसे ही ?
क्यों उसने सीता से यह नहीं कहा
पहले मैं अग्नि परीक्षा दूंगा
बाद में तुम देना ?
इसका कारण भी
शायद यही मिलेगा
कि राम एक पुरुष था
और सीता एक स्त्री
इसलिए अत्याचार सहना
उसकी नियति बन गया
और उसने चुपचाप सहा भी
इस अत्याचार को .
चुपचाप इसलिए
क्योंकि
हर स्त्री की तरह
वह पति को सिर्फ पति नहीं
परमेश्वर भी मानती थी .
यह बात और है कि
उसका पति
परमेश्वर बाद में
हर पति की तरह
पुरुष पहले था .
एक महत्वाकांक्षी पुरुष ,
और उसकी महत्वाकांक्षा ने
न्यायप्रिय सम्राट के रूप में
विख्यात होने की महत्वाकांक्षा ने
बलिबेदी पर चढ़ा दिया
एक पति भक्तिन अबला को
सीता को .
{ समाप्त }
* * * * *
शनिवार, जून 18, 2011
महत्वाकांक्षा {भाग - 3}
गतांक से आगे
यह अत्याचार
जिसे न्याय की संज्ञा मिली
कोई सोचने की जहमत उठाएगा
किन परिस्थितियों में मिला .
न्याय उसे दिया जाता है
जो न्याय मांगने आए
न कि
घर-घर जाकर
दरवाजे पर दस्तक देकर
यह कहा जाता है कि
दरवाज़ा खोलो
हम न्याय के नाम पर
तुम्हारी मनोकामनाएं पूर्ण करने आए हैं .
राम का न्याय ऐसा ही तो था .
उस साधारण जन ने ,
लांछन लगाने वाले व्यक्ति ने
राजसभा में जाकर यह नहीं कहा था
कि सीता अपवित्र है
और कोई भी अपवित्र औरत
नहीं हो सकती महारानी
इसलिए इसे देश निकाला देकर
आप न्याय करें ,
बल्कि उसने तो
अपनी पत्नी से झगड़ते वक्त
सीता के चरित्र के सम्बन्ध में
अपनी सोच रखी थी
उसकी सोच लांछन तो हो सकती है
न्याय प्राप्त करने की अपील नहीं .
हाँ , न्याय करना था तो
काफी था यह
कि सज़ा न दी जाती
उस साधारण जन को
क्योंकि सज़ा देने का अर्थ होता
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को छीनना
जो कदापि उचित न था ,
लेकिन इसके लिए
उचित न था
किसी निर्दोष को दंडित करना भी .
राम ने किया
यह अनुचित कार्य भी
शायद वह
वाहवाही लूटना चाहता होगा
सबको संतुष्ट करके
लेकिन क्या वह सबको संतुष्ट कर पाया ?
क्या सबको संतुष्ट किया जा सकता है ?
क्या सबको संतुष्ट किया जाना चाहिए ?
नहीं ,
सबको संतुष्ट करने के लिए
किसी निर्दोष को
दोषी सिद्ध करना
कदापि उचित नहीं .
राम ने ऐसा करके
प्रसिद्धि तो हासिल कर ली
न्यायप्रिय शासक के रूप में
लेकिन वह
न्याय नहीं कर पाया .
{ क्रमश: }
* * * * *
गुरुवार, जून 16, 2011
महत्वाकांक्षा {भाग - 2}
गतांक से आगे
शायद नहीं
क्योंकि
न्याय का अर्थ है
दोषी को सज़ा देना
और सीता तो दोषी नहीं थी
उस पर तो
सिर्फ लांछन लगाया गया था
साधारण जन के द्वारा
लांछन को ही आधार बनाकर
किसी को सज़ा देना
कहाँ का न्याय है ?
यदि यह न्याय है तो
कोई नहीं बच पाएगा दंडित होने से
क्योंकि कोई कठिन काम नहीं है
किसी की तरफ ऊँगली उठाना .
उस साधारण जन ने
सिर्फ ऊँगली ही उठाई थी
सीता की और
कोई तर्क प्रस्तुत नहीं किया था
सीता को अपवित्र सिद्ध करने के लिए
और न्याय देखो
सिद्ध हुई बात को
झूठा बना दिया गया
एक साधारण लांछन के लिए .
{ क्रमश:}
* * * * *
सोमवार, जून 13, 2011
महत्वाकांक्षा {भाग - 1}
{हरियाणा साहित्य अकादमी हर वर्ष अनुदान हेतु पांडुलिपियाँ आमंत्रित करती है , वर्ष 2007 - 2008 के लिए मैंने भी पाण्डुलिपि भेजी थी . सौभाग्य से मेरे द्वारा भेजी गई पाण्डुलिपि को चुन लिया गया . बस उसी कारण मैं अपनी विचारप्रधान रचनाओं को कविता कहने का साहस जुटा पाया . इस पुस्तक में कुल 28 कविताएँ हैं ,जिनमें दो लम्बी कविताएँ भी है . वैसे तो निर्णय के क्षण लेबल से इस पुस्तक की कविताएँ इस ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूँ , पर आज से लम्बी कविता को तीन या चार किश्तों में प्रकाशित करूंगा . आशा है आप अपने मत से परिचित करवाएंगे .}
महत्वाकांक्षा
क्या न्याय का अर्थ है -
एक को मुंह मांगी वस्तु का मिल जाना
और दूसरे से
बिना किसी कारण ही
उसकी प्रिय वस्तु छीन लेना ?
कुछ ऐसा ही हुआ था
जानकी के साथ
न्यायप्रिय राजा राम की पत्नी के साथ
और इसे
मिलती रही है
न्याय की संज्ञा
इसलिए
शायद यही न्याय होगा .
लेकिन यह न्याय किस को मिला
उस साधारण जन को
जिसने पत्नी से झगड़ते समय
लांछन लगाया था सीता पर ;
उस सीता पर
जो निर्दोष सिद्ध कर दी गई थी
जो निर्दोष सिद्ध कर दी गई थी
अग्नि द्वारा ;
या फिर सीता को
जिसे देश निकाला मिला अकारण ही .
शायद यह न्याय नहीं
महत्वाकांक्षा थी राम की
न्यायप्रिय राजा के रूप में
विख्यात होने की ,
अन्यथा
कोई कारण नहीं था
सीता को देश निकाला देने का .
राम ने
सिद्ध करना चाहा था
वह न्याय के लिए
छोड़ सकता है
अपनी परमप्रिय पत्नी तक को .
लेकिन क्या राम न्याय कर पाया ?
{ क्रमश:}
* * * * *
बुधवार, जून 08, 2011
अगज़ल - 20
टूटकर बिखर जाऊं , इतना न तडपा साकी
जिद्द छोड़कर घूँट - दो - घूँट पिला साकी .
छीन ले होश मेरा , कर दे मदहोश मुझे
दूंगा फिर तुझे मैं , उम्र भर दुआ साकी .
अभी नजर प्यासी है , अभी दिल भरा नहीं
न चेहरा अपना जुल्फों में छुपा साकी .
याद रखना , सब्र की भी हद्द होती है
थोडा चैन भले ही लेना चुरा साकी .
जिंदगी में सकूं नाम की कोई चीज़ नहीं
होता है तो होने दे हादसा साकी .
दोस्त कैसा , दोस्ती का दुश्मन है ' विर्क '
उस काफिर का नाम न जुबां पे ला साकी .
* * * * *
स्थान:
Haryana, India
रविवार, जून 05, 2011
कविता - 9
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