गुरुवार, अप्रैल 12, 2012

अग़ज़ल - 38

                   चलने को तो हम साथ चलते हैं
                   मगर ये दिल हैं कि कहाँ मिलते हैं ।

                   मुझे नफरत है नकाबपोशी से
                   और वो रोज चेहरा बदलते हैं ।

                   फिर दुनिया से शिकवा करें कैसे
                   आस्तीन में ही जब सांप पलते हैं ।
             
                   उन्हें भी होगा गरूर जवानी का
                   इस मौसम में सबके पर निकलते हैं ।
                 
                   मजहबों की आग को ठंडा करो
                   इसमें हजारों इंसान जलते हैं |


                   मुहब्बत को विर्क आजमाते रहना 
                   सुना है इससे पत्थर पिघलते हैं ।


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12 टिप्‍पणियां:

मनोज कुमार ने कहा…

फिर दुनिया से शिकवा करें कैसे
आस्तीन में ही जब सांप पलते हैं ।
बेहतरीन ग़ज़ल! आज तो हर ओर हैं ...

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर गजल...हर शेर बहुत बढिया है। बधाई स्वीकारें।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

वह वाह! वह वाह!

राज चौहान ने कहा…

वाह...........
बहुत बढ़िया सर.

मैं ब्लॉग जगत में नया हूँ मेरा मार्ग दर्शन करे !
http://rajkumarchuhan.blogspot.in

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुंदर गजल हमेशा कि तरह ही हर एक शेर लाजवाब अपने आपमें एक जीवन दर्शन समेटे

कुमार राधारमण ने कहा…

कोई फ़र्क़ नहीं,ग़ज़ल हो कि अग़ज़ल
आप जो भी कहें,अच्छे लगते हैं!

उत्‍तमराव क्षीरसागर ने कहा…

बेहतरीन ....

उत्‍तमराव क्षीरसागर ने कहा…

सुंदर....

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 ने कहा…

बहुत अच्छा लगा ..अपना समर्थन और स्नेह बनाये रखें ..भ्रमर ५
भ्रमर
बाल झरोखा सत्यम की दुनिया
भ्रमर का दर्द और दर्पण

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 ने कहा…

बहुत अच्छा लगा ..अपना समर्थन और स्नेह बनाये रखें ..भ्रमर ५
भ्रमर
बाल झरोखा सत्यम की दुनिया
भ्रमर का दर्द और दर्पण

रविकर ने कहा…

बहुत बढ़िया प्रस्तुति |
बधाईयाँ ||

Aruna Kapoor ने कहा…

वाह!...बहुत सुन्दर गजल!...पढ़ कर मजा आ गया!...बधाई!

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