इधर
जेठ की दोपहरी में
लू
झुलसा रही है तन को
उधर मुल्क में
आदमी की संकीर्णता से
फैली आग में
झुलस रहे हैं जज्बात ।
बारिशों का मौसम आते ही
बंद हो जाएगी
लू चलनी
खुशगवार हो जाएगा मौसम
राहत मिल जाएगी तन को
लेकिन
झुलसे हुए जज्बातों पर
नहीं लग पाएगी कोई मरहम
दिलों में पड़ी दरारें
भर न पाएंगी
किसी भी तरह ।
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10 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी लगाई गयी है!
बहुत बढ़िया....
तन के घाव भर जाते हैं मन के नहीं.....
सादर
लेकिन
झुलसे हुए जज्बातों पर
नहीं लग पाएगी कोई मरहम
काश जज़्बातों के लिए भी कोई बरखा का मौसम होता .... सुंदर अभिव्यक्ति
waah bahut umda prastuti.man moh liya
...झुलसे हुए जज्बात...ला इलाज!
क्या पता बरसात की पहली फुहार.....मन की दरार को भर दे ???
बहुत सुंदर विचार.आपकी लेखनी में बहुत ऊर्जा है.बधाई
सुंदर अभिव्यक्ति !!
झुलसे हुए जज्बातों पर
नहीं लग पाएगी कोई मरहम
दिलों में पड़ी दरारें
भर न पाएंगी
किसी भी तरह .
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
वाह ,बहुत सुन्दर ...कोई तो है ,जिसके एक झलक से चैन -सुकून मिलता है
कोई तो है ,जिसके आने की आहट का अहसास होता है
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