'अरे कल्लू मजदूरी पर चलेगा' - मैंने कल्लू से पूछा, जो अपने झोंपड़े के आगे अलाव पर तप रहा था. वैसे आज ठंड कोई ज्यादा नहीं थी. हाँ, सुब्ह-सुब्ह जो ठंडक फरवरी के महीने में होती है, वह जरूर थी. कल्लू ने मेरी ओर गौर से देखा और कहा - ' अभी बताते हैं साहिब ' और इतना कहकर वह खड़ा हो गया और झोंपड़े के दरवाजे पर जाकर आवाज दी - ' अरे मुनिया की माँ, घर में राशन है या ... ?' उसके प्रश्न के उत्तर में अंदर से आवाज आई - ' आज के दिन का तो है. '
यह सुनते ही कल्लू, जो मुझे लग रहा था कि वह काम पर चलने को तैयार है, पुन: अलाव के पास आकर बैठते हुए बोला - 'नहीं, साहिब आज हम नहीं जाएगा.'
'क्यों ?'
क्यों क्या ? बस नहीं जाएगा. ठण्ड के दिन में काम करना क्या जरूरी है ?'
' अगर घर में राशन न होता तो ?'
' तब और बात होती, अब आज के दिन का तो है न.
उसके इस उत्तर को सुनकर मैं नए मजदूर की तलाश में चल पड़ा.
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11 टिप्पणियां:
बहुत मार्मिक लघुकथा!
vicharniya sthiti , sarthak lekh ke liye badhai
यही मानसिकता तो गरीबी का कारण है। हम भारतीय काम से जी चुराने मे माहिर हैं। अच्छी लघु कथा।
अदभुत है जी
KAL HO NAA HO
बेहद सार्थक प्रस्तुति ... ऐसा ही होता है यहां ये लोग अपनी स्वेच्छा से मालिक का चयन करते हैं, हम अपनी मर्जी से मजदूर या किसी से कोई काम नहीं करा सकते ...
क्या कहूँ?
Main Nirmala sey sahmat hoon kyion ki yeh sacchai hai. Hum Bhartiya, jis lagan se videshon mein jaa kar kaam karte hain uski tulna mein yahaan raah kar nahi karte.
गरीबी की दास्तान बयान करती मार्मिक रचना |
marmik rachna.... dil ko chhune wali!
आपकी ये कहानी पहले भी पढ़ी हुई हैं .....बस ये ही कहूँगी कि सोचने को मजबूर करती ये कहानी
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