बड़ी उलझन है, बड़ी मुश्किल है
सीने में बैठा दिल पागल है ।
बेगानों से बढ़कर हैं अपने
खामोश रहो, फ़िज़ा बोझिल है ।
जिसे भुलाना है, उसी को सोचूँ
फिर पूछूँ, क्यों वो याद हर पल है ?
मुहब्बत की राह आसां तो नहीं
यहाँ बेवफ़ाइयों की दलदल है ।
लोगों जैसा समझदार नहीं हूँ
मेरे लिए तो वफ़ा ही मंजिल है ।
तमाचा है आदमियत के मुँह पर
हो रहा ' विर्क ' जो कुछ आजकल है ।
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - काव्य गंगा
संपादक - रविन्द्र शर्मा
प्रकाशन - रवि प्रकाशन, बिजनौर ( उ.प्र. )
प्रकाशन वर्ष - 2008
4 टिप्पणियां:
सुंदर पंक्तियां।
एक एक शब्द भाव में भींगे हुए।
मूढ़ जनता की विचारहीनता और अंधश्रद्धा का परिणाम है यह !
बहुत सुंदर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-11-2014) को "शुभ प्रभात-समाजवादी बग्घी पे आ रहा है " (चर्चा मंच 1807) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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