मझधार ही मझधार हैं, कोई किनारा नहीं
मतलबपरस्त दुनिया में, मिलता सहारा नहीं ।
वो तो कब के भूल चुके हैं कसमें वफ़ा की
याद करवाऊँ उन्हें, ये मुझे गवारा नहीं ।
हैवानों की दुनिया में न जाने कब हार जाऊँ
अभी तक तो शराफत का लिबास उतारा नहीं ।
जी चाहता है, मस्त रहूँ बस अपनी ही धुन में
मगर यूँ बेपरवाह हुए भी होता गुजारा नहीं ।
दौलत-शोहरत ही सब कुछ हुआ नहीं करती
फिर क्या हुआ अगर बुलंद अपना सितारा नहीं ।
ज़िंदगी कैसे जी है ' विर्क ' मैं जानता हूँ
ये सच है, तेरी बेवफाई ने मुझे मारा नहीं ।
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - हृदय के गीत
संयोजन - सृजन दीप कला मंच, पिथौरागढ़
प्रकाशन - अमित प्रकाशन, हल्द्वानी ( नैनीताल )
प्रकाशन वर्ष - 2008
7 टिप्पणियां:
बहुत उम्दा ग़ज़ल
न्यू पोस्ट अनुभूति : लोरी !
जितना बार पढो आपकी रचना .... मन नहीं भरता
सभी शेर बहुत उम्दा. यह बहुत ख़ास लगा...
जी चाहता है, मस्त रहूँ बस अपनी ही धुन में
मगर यूँ बेपरवाह हुए भी होता गुजारा नहीं ।
बधाई.
सुन्दर शब्द और अच्छे भावों का संयोजन है .
सुन्दर शब्द और अच्छे भावों का संयोजन है .
सुन्दर शब्द और अच्छे भावों का संयोजन है .
सुन्दर शब्द और अच्छे भावों का संयोजन है .
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