बुधवार, मई 20, 2015

ये ज़िंदगी तल्ख़ दोपहर साक़ी

तेरे पास गर मय नहीं तो पिला दे ज़हर साक़ी 
बिन पिए लगे है ये ज़िंदगी तल्ख़ दोपहर साक़ी । 

ग़म का इलाज ढूँढ़ने आना पड़ता है पास तेरे 
क्या करें लोग, मंदिर नहीं होता सबका घर साक़ी । 

 फिर बताओ, क्यों न उड़ेंगी चैनो-सकूं की चिन्दियाँ 
हावी है दिलो-दिमाग पर कोई-न-कोई डर साक़ी । 

ये कैसे दस्तूर हैं ज़िंदगी के, बस ख़ुदा ही जाने 
शबे-ग़म के बाद होती नहीं ख़ुशियों की सहर साक़ी । 

दुआएँ बेअसर रहें, अनकिए गुनाहों की सज़ा मिले 
पता नहीं पत्थर है ख़ुदा या ख़ुदा है पत्थर साक़ी । 

जीने की चाह में ' विर्क ' रोज़ मरना पड़ता है 
ये हाल यहाँ, होगी तुझे भी इसकी ख़बर साक़ी । 

दिलबाग विर्क 
*****
मेरे और कृष्ण कायत जी द्वारा संपादित " सतरंगे जज़्बात " से 

10 टिप्‍पणियां:

Madan Mohan Saxena ने कहा…

सुन्दर सटीक और सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
कभी इधर भी पधारें

Rishabh Shukla ने कहा…

sundar rachna.........

मन के - मनके ने कहा…

दुआएम बेअसर रहें,अनकिये गुनाहों की सजा मिले
पता नहीं पत्थर है खुदा या खुदा है पत्थर साकी
बहुत खूब.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-05-2015) को "एक चिराग मुहब्बत का" {चर्चा - 1984} पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
---------------

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर शेर

Madhulika Patel ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना दिलबाग जी

Madhulika Patel ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Tayal meet Kavita sansar ने कहा…

जीने की चाह में ' विर्क ' रोज़ मरना पड़ता है
ये हाल यहाँ, होगी तुझे भी इसकी ख़बर साक़ी ।
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह बहुत उम्दा

कविता रावत ने कहा…

बहुत खूब!

Unknown ने कहा…

भवनाओ को जैसे शब्दो मे घोला गया हॆ बहुत ही सुंदर रचना हॆ

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