बुधवार, जून 10, 2015

दिल दिल था, क़िला नहीं

मुहब्बत की थी जिस पत्थर से, उस से गिला नहीं 
इस उजड़े हुए चमन में फूल ख़ुशी का खिला नहीं । 

एक-सा ही दौर गुजर रहा है कई मुद्द्तों से 
यहाँ पतझड़ और बहार में कोई फ़ासिला नहीं । 
खंडहर बना दिया है बेवफ़ाई के नश्तरों ने 
टूटना तो था ही इसे, दिल दिल था, क़िला नहीं । 

खाकर ठोकरे ज़माने की भीड़ से जुदा हो गए 
ग़म में तन्हा ही चले हैं, संग कोई क़ाफ़िला नहीं । 

शायद सफ़र ही है फ़साना मेरी ज़िंदगी का 
चाहा जिस किसी साहिल को, वो मुझे मिला नहीं । 

' विर्क ' किस पर लगाऊँ इल्ज़ाम मैं ख़स्तादिली का 
ये ग़ुरबत है नसीब की, मुहब्बत का सिला नहीं । 

दिलबाग विर्क 
*****

मेरे और कृष्ण कायत जी द्वारा संपादित पुस्तक " सतरंगे जज़्बात " में से 

5 टिप्‍पणियां:

Asha Lata Saxena ने कहा…

उम्दा रचना |

रश्मि शर्मा ने कहा…

खंडहर बना दिया है बेवफ़ाई के नश्तरों ने
टूटना तो था ही इसे, दिल दिल था, क़िला नहीं ..हर शेर लाजवाब है

Madan Mohan Saxena ने कहा…

हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार ,बधाई. कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

Himkar Shyam ने कहा…

खाकर ठोकरे ज़माने की भीड़ से जुदा हो गए
ग़म में तन्हा ही चले हैं, संग कोई क़ाफ़िला नहीं...
बहुत ख़ूब, उम्दा ग़ज़ल

Unknown ने कहा…

अति सुंदर रचना

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...