धड़कने हुई उधार जब से दिल दीवाना हो गया
ज़िंदगी के नाम फिर ग़म का फ़साना हो गया ।
पहले सौग़ात समझते रहे मुहब्बत की मर्ज़ को
अब क्या होगा इलाज, रोग बड़ा पुराना हो गया ।
ख़ुद को बचाने की मैंने की थी बड़ी ही कोशिश
क्या करें, उनका हर अंदाज़ क़ातिलाना हो गया ।
कितनी नाज़ुक लड़ी से बंधे थे रिश्तों के मोती
कल तक जो अपना था, वो आज बेगाना हो गया ।
यूँ तो रोज़ आसमां पर सजती है रात चाँदनी
मगर दिल का चाँद देखे एक ज़माना हो गया ।
उन्होंने बेवफ़ा दिल के इरादों को दिया अंजाम
और मज़बूरियों का क्या ख़ूब बहाना हो गया ।
' विर्क ' मेरा नसीब भी बेचारा अब क्या करता
बिजलियों की शाख़ पर जब आशियाना हो गया ।
दिलबाग विर्क
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मेरे और कृष्ण कायत जी द्वारा संपादित पुस्तक " सतरंगे जज्बात " से
7 टिप्पणियां:
बहुत खूब........ उम्दा
वाह क्या बेहतरीन ग़ज़ल है..मतलब आपने तो बिल्कुल हिला कर रख दिया.
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/
बहुत बढ़िया
शानदार गजल..लाजवाब शेर
सुन्दर रचना , बेहतरीन अभिब्यक्ति
कभी इधर भी पधारें
sundar rachna :)
बिजलियों की शाख के नशेमन खाक होना था!
अच्छी गज़ल!
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