लोग हों-न-हों, मैं इस बात को लेकर शर्मिंदा हूँ
हैवानियत है जहाँ, मैं उस दौर का वाशिंदा हूँ |
जमाने को बदल सकूं, ऐसी मेरी हैसियत नहीं
खुद को बदलून कैसे, अपने उसूलों में बंधा हूँ |
बस उसका वजूद ही दुश्मन है तीरगी का वरना
आफताब कब कहे किसी को कि मैं ताबिंदा हूँ |
खुदा ने तो लिखी थी परवाज मेरी किस्मत में
वक्त ने काट दिए पर जिसके, मैं वो परिंदा हूँ |
बेबसी के दौर में जीने की तमन्ना तो नहीं मगर
बुजदिली है ख़ुदकुशी ' विर्क ' बस इसलिए ज़िंदा हूँ |
दिलबागसिंह विर्क
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सांझा-संग्रह - 100 क़दम
संपादक - अंजू चौधरी, मुकेश सिन्हा
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर।
बहुत सुन्दर .....
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’आँखों ही आँखों में इशारा हो गया - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
वाह !
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