ज़मीं नहीं होती, उनका आसमां नहीं होता
सीने में जिनके छुपा कोई तूफ़ां नहीं होता।
क्यों खोखले शब्दों को सुनना चाहते हो
लज़्ज़ते-इश्क़ का, कभी बयां नहीं होता।
दर्द तो सताता ही है उम्र भर, भले ही
मुहब्बत के ज़ख़्मों का निशां नहीं होता।
पल-पल मिटाना होता है वुजूद अपना
दौरे-ग़म को भुलाना आसां नहीं होता।
अपने मसले अपने तरीक़े से सुलझाओ
यहाँ सबका मुक़द्दर यकसां नहीं होता।
मंज़िलें उसकी उससे बहुत दूर रहती हैं
जब तक आदमी मुकम्मल इंसां नहीं होता।
तारीख़ी बातें किताबों में ही रह जाती हैं
आम आदमी ‘विर्क’ तारीख़दां नहीं होता।
दिलबागसिंह विर्क
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7 टिप्पणियां:
बेहतरीन ग़ज़ल।
ख़्यालात,जज़्बात, अल्फा़ज़ बेहतरीन
अच्छी गजल.
अपने मसले अपने तरीक़े से सुलझाओ।
वाह, क्या खूब कही आपने।
सुन्दर प्रस्तुति
लाजवाब
बहुत सुंदर!
उम्दा सृजन।
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