( विश्व हिंदी सचिवालय मोरिशस द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार प्राप्त कहानी )
" अभी तो मेरे हाथों की मेहँदी भी नहीं उतरी और आप …." - शारदा ने अपने आंसू पोंछते हुए डबडबाई आवाज़ में अपने पति राधेश्याम से पूछा ,लेकिन राधेश्याम ने उसे बात पूरी नहीं करने दी और बीच में ही उसे टोकते हुए बोला – " तुम सारी की सारी औरतें ही एक जैसी होती हो , मैं तुम्हारी मेहँदी को देखता रहूँ या कुछ कमाई करूं ? "
" अभी तो मेरे हाथों की मेहँदी भी नहीं उतरी और आप …." - शारदा ने अपने आंसू पोंछते हुए डबडबाई आवाज़ में अपने पति राधेश्याम से पूछा ,लेकिन राधेश्याम ने उसे बात पूरी नहीं करने दी और बीच में ही उसे टोकते हुए बोला – " तुम सारी की सारी औरतें ही एक जैसी होती हो , मैं तुम्हारी मेहँदी को देखता रहूँ या कुछ कमाई करूं ? "
" कमाई तो यहाँ भी हो सकती है |"
" यहाँ क्या खाक कमाई होती है , खेत में फसल तो होती नहीं , कर्ज़ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, अगर कुछ दिन और खेती से कमाई की उम्मीद में बैठे रहे तो ये रही – सही जमीन भी बिक जाएगी | "
" खेती के सिवा और भी काम धंधे हैं |"
" हम किसान होकर मजदूरी कैसे कर सकते हैं ?"
" विदेश जाकर भी मजदूरी ही करनी पड़ेगी |"
" वहाँ कोई अपना तो नहीं होगा देखने वाला और यहाँ रहकर अगर मजदूरी करेंगे तो लोगों के ताने सहने पड़ेंगे |"
" लोगों का क्या है, लोग तो कुछ– न–कुछ कहते ही रहते हैं |"
" लोगों के कहने पर ही सब कुछ निर्भर करता है | समाज में रहकर लोगों की बातों से कैसे बचेंगे | अब तुम्हीं सोचो यदि मैं पहले मजदूरी करता होता तो क्या तुम्हारी शादी मेरे साथ होती,बताओ मुझे ?" थोड़ी देर रूककर वह खुद ही जवाब देते हुए कहता है – " कभी नहीं, क्योंकि तुम्हारे माँ-बाप और सगे-सम्बन्धियों ने कहना था कि लड़का तो मजदूर है और हम ठहरे इज्जतदार लोग. मेरा मजदूर होना इज्जितहीन हो जाना था क्योंकि समाज की प्रथा ही ऐसी है . यहाँ पैसे को पूजा जाता है, पैसा कमाने वाले को पूजा जाता है और पैसा कमाने के लिए विदेश जाना जरूरी है | यहाँ रहकर पैसा बचाना तो दूर , भरपेट रोटी मिल जाए वही गनीमत है |"
" यदि पैसे कमाने के लिए आपने विदेश जाना ही था तो फिर शादी क्यों की | आपको चाहिए था कि पैसा कमाकर लाने के बाद ही शादी करते |" - शारदा ने इस प्रकार बेबसी के साथ ये शब्द कहे जैसे राधेश्याम की बात को काटने के लिए उसके पास कोई तर्क न हो |
" यदि मेरे वश में होता तो मैं ऐसा ही करता लेकिन तब विदेश जाने का कोई जुगाड़ ही नहीं बना, अब बड़ी मुश्किल से विदेश जाने का प्रबंध हुआ है तो तुम घडियाली आंसू बहाने लग गई हो |"
" आपको तो मेरे आंसू घडियाली आंसू ही लगते हैं, लेकिन मुझसे पूछो मुझ पर क्या गुजर रही है | कैसे जीऊँगी आपके बिना ?"
" पहले भी तो जीती थी |" – राधेश्याम ने बड़ी बेरुखी से कहा .
" पहले की बात ओर थी, अब आप मेरे सब कुछ हैं और आपके बिना इस पराए घर में मेरा है ही कौन ?"
" यह घर पराया नहीं ,तुम्हारा अपना है |"
" हाँ , यह घर मेरा अपना है, लेकिन आपके कारण और यदि आप इस घर से चले जाएंगे तो यह घर भी मेरे लिए पराया हो जाएगा |"
" कुछ वर्षों के लिए जा रहा हूँ, सदा के लिए तो नहीं |"
" कुछ वर्ष भी कैसे गुजरेंगे ?"
" हमारे बच्चे खुश रह सकें, वे ऐशो-आराम का जीवन जी सकें, इसके लिए हमें कुछ-न-कुछ त्याग तो करना ही होगा |"
" मगर…."
" अगर-मगर को छोडो और हाँ ,माँ को अभी कुछ नहीं बताना |" - सख्ती के साथ निर्देश देकर राधेश्याम तो बाहर चला गया और शारदा को छोड़ गया अपनी किस्मत को कोसने के लिए | दुल्हन बनकर आई थी तो कितने अरमान थे उसके दिल में, मगर अब सब कुछ तबाह-सा होता लगता है उसे | वह भी चाहती है कि अच्छा पहनने को हो, खाने को हो मगर खाने-पहनने की वस्तुएं पति से दूर रहने की कीमत पर तो प्राप्त नहीं कर सकती वह | पति का प्यार सबसे जरूरी है, लेकिन कौन मानेगा उसकी बात | पति तो ठहरा परमेश्वर और परमेश्वर तो मनमर्जी करेगा ही, क्यों मानेगा वह किसी की बात |
शारदा के दिल में कसक थी तो आँखों में आंसू | बहुत चाहा की जहर के इस घूँट को पी जाए, दुखी होकर भी अपने दुःख को प्रकट न होने दे, घर के ख़ुशी भरे माहौल को मातमी न बनाए, पर आंसू थे कि बरबस ही आँखों में भर आते थे |
शारदा तो शायद छुपा ही जाती अपने दुःख को मगर रोते-रोते गोरे चेहरे का सुर्ख लाल हो जाना उसके दिल की कहानी को, उस कहानी को, उस दर्द को, जो उसके पति ने छुपाने को कहा था, को सरेआम कर रहा था और शारदा की सास भी इस चेहरे को देखते ही भांप गई थी कि कुछ-न-कुछ बात जरूर है | असली बात को जानने के लिए उसने शारदा से पूछा – " क्या बात है बहू, राधेश्याम ने कुछ कहा क्या ?"
" कुछ नहीं माँ जी, बस यूं ही मायके की याद आ रही थी |" - अपने आसुंओं को छुपाने की नाकाम कोशिश करते हुए शारदा ने उत्तर दिया |
" मायके की याद आ रही थी या …"- माँ ने शक्की निगाहों से उसे देखते हुए कहा |
" नहीं, सच कह रही हूँ |"
" तू कुछ छुपा रही है बहू |" - राधेश्याम की माँ शारदा के पास बैठते हुए बोली और प्यार से उसका सिर सहलाते हुए बोली – " मैं तेरी माँ हूँ बहू, जो भी बात है साफ-साफ बता मुझे |"
" कुछ खास नहीं माँ जी |" - यह कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी | शारदा की सास ने उसे गले से लगा लिया और प्यार से उसकी पीठ सहलाते हुए बोली – " जो भी बात है, मुझे बता, तुझे मेरी कसम |"
रोते-रोते शारदा ने सारी बात अपनी सास को बता दी | उसकी सास ने उसे सांत्वना देते हुए कहा – " मुझे इसी बात का डर था, लेकिन तू रो मत बहू, कुछ नहीं होगा मेरे जीते जी, मैं कहीं नहीं जाने दूँगी उसे |"
शारदा चुप तो कर गई लेकिन अपनी सास के आश्वासन को महज एक झूठी तसल्ली के सिवा कुछ नहीं समझ सकी | समझती भी कैसे, सब जानते हैं कि कितनी बात मानते हैं बेटे आजकल अपने माँ-बाप की, लेकिन शाम के वक्त हालात कुछ ऐसे बन गए जिसकी कल्पना उसने स्वप्न में भी नहीं की थी | माँ-बेटे में जमकर तकरार हुई | बेटा वही एकमात्र रट लगाए हुए था कि इस देश में रहकर धन नहीं कमाया जा सकता जबकि माँ, सिर्फ माँ ही नहीं, अपितु एक आहत पत्नी आज विरोध पर अड़ी हुई थी, एक नव विवाहिता को आहत होने से बचाने के लिए | वह पूछ रही थी – " क्या इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें जन्म दिया था ? क्या इसी दिन के लिए मैंने मर-मर कर तेरा पालन पोषण किया था ? " वह कह रही थी – " जब वह अकेली औरत होते हुए उसका पालन पोषण कर सकती है तो क्यों वह पुरुष होते हुए अपनी सन्तान का पालन पोषण नहीं कर पाएगा ? ठीक है विदेश में कमाई अधिक है लेकिन किसकी खातिर करोगे तुम कमाई ? तुम्हारे पिता जी भी गए थे विदेश | क्या मिला उन्हें विदेश से ? क्या मिला हमें, उनके परिवार को उनकी कमाई से ? कागज के चंद नोट, बहुत कीमत मानते हो तुम इनकी मगर इन नोटों की खातिर तुम्हारे पिता जी अपनी बहन की शादी में नहीं आ सके, उनके माँ-बाप उन्हें याद करते मर गए, उनके दाह-संस्कार पर भी वे नहीं आ सके | क्या तुम्हे पता नहीं कि वे नहीं आए उनके मरने की खबर आई थी ? क्या अब तुम चाहते हो कि हम भी वैसी ही स्थिति से गुजरें ? क्या चंद नोटों के लिए हम भी तड़पें तुम्हें देखने के लिए? और फिर उसके बारे में तो सोचो जिसे कुछ ही दिन पहले ब्याह कर लाए हो, मैंने तो तेरे सहारे काट ली जिन्दगी, यह किसके सहारे काटेगी ?"
माँ की बातें राधेश्याम को गलत लगी हों ऐसा नहीं और न ही वह इन बातों से अनजान था | बचपन में उसकी छोटी-बड़ी ख्बाहिशें तो पूरी हुई थी लेकिन पिता का प्यार उसे नहीं मिला था |पिता के होते हुए भी पिता के प्यार से वंचित रहा था वह और शायद इसीलिए कुछ वर्ष पहले तक वह भी विदेश जाने को बुरा समझता था, लेकिन अब परिस्थितियों के कारण उसका इरादा बदल चुका था | हालात उसे बता रहे थे कि इस देश में रहकर वह घुट-घुट कर मर सकता है, ख़ुशी-ख़ुशी जी नहीं सकता | अपनी माँ से उसे भी प्यार था | वह भी चाहता था कि वह अपनी नव विवाहिता के साथ रहे लेकिन क्या उसका प्यार ही उनका पेट भर सकेगा ? क्या वही कल को ये नहीं कहेंगी कि कुछ कमाओ ? तब कहाँ से कमाएगा वह ? नौकरी यहाँ मिलती नहीं, खेती में सिर खपाने के सिवा और कुछ नहीं, और व्यापर बिना धन-दौलत के शुरू नहीं होता | रही मजदूरी, कैसे करेगा वह मजदूरी ? चलो कर भी लेगा तो क्या मजदूरी से चल पाएगी गृहस्थी ? महंगाई के इस जमाने में मजदूरी से प्राप्त आय से दाल-रोटी का खर्चा बमुश्किल चल पाएगा, फिर अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएगा वह ? कैसे पूरे करेगा वह उन नन्हीं जानों के छोटे-छोटे अरमान ?
दोनों के अपने-अपने तर्क थे, अपनी-अपनी सोच थी, ऐसे में कोई समाधान निकलना कहाँ संभव था, इसीलिए माँ-बेटे की तकरार बेनतीजा ही रही | हाँ , इस तकरार के बाद कुछ दिन तक घर में ख़ामोशी रही | घर के तीनों सदस्य इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए थे | कोई भी इस विषय पर बातचीत शुरू नहीं करना चाहता था | राधेश्याम ने चुपके-चुपके अपने जाने की तैयारियां शुरू कर दी थी | पैसे के लिए जमीन गिरवी रखने की तैयारी थी | उसे लग रहा था शायद माँ उससे सहमत हो गई है, लेकिन रविवार के दिन जब उसके सुसराल और ननिहाल पक्ष के कुछ आदमी आए तो उसे समझ आ गया कि यह ख़ामोशी तूफान से पहले की ख़ामोशी थी | असली तूफान तो आज आना था | उसके मामा जी नौकरी पेशा थे, वे भी आए थे | उसके ससुर और उनके साथ आए उनके भाई भी पढ़े-लिखे थे | सबके आने पर राधेश्याम की माँ ने उसके विदेश जाने वाली बात को उठाया | राधेश्याम की स्थिति से सभी परिचित थे | पांच एकड़ जमीन थी उसके पास | गुजारा हो सकता था लेकिन बिजली-पानी की कमी ने खेती को जी का जंजाल बना दिया था, ऊपर से प्रकृति भी मानव की दुश्मन हुई जा रही है, ऐसे में खेती से खुशहाली आएगी ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी | राधेश्याम ने यही तर्क आए हुए सज्जनों के सामने रखा | नौकरी की उम्मीद भी उसे नहीं थी | ऐसा नहीं कि उसने प्रयास नहीं किया बल्कि वह कई बार इंटरव्यू तक पहुंचा, लेकिन इंटरव्यू में वही कामयाब होते हैं जिनके पास सिफारिश होती है या फिर वे इक्का-दुक्का लोग जो इतने कुशाग्र बुद्धि होते हैं कि उन्हें किसी तरह रोका नहीं जा सकता | दुर्भग्यवश उसके पास ये दोनों योग्यताएं नहीं थी | ऐसे में उसे विदेश जाना ही उचित लगा | उसने आए हुए सज्जनों से प्रश्न किया – " क्या आप लूट-चोरी को छोड़कर उसके लिए कोई ऐसा जरिया बता सकते हैं जिससे वह आठ-दस हजार रूपए महीना नियमित रूप से कमा सके |"
जवाब इसका क्या होगा सब यही समझा रहे थे कि तुम ठीक कह रहे हो लेकिन देश देश होता है, अपने देश की रूखी-सूखी भी अच्छी होती है, लेकिन वह फकीरों जैसी ये बातें सुनने को तैयार नहीं था | वह बोला – " दुःख तो हमारा मुकद्दर है | मेरा भी दिल करता है कि अपने गाँव में अपने परिवार के साथ ख़ुशी-ख़ुशी जीवन व्यतीत करूं लेकिन यहाँ यह संभव नहीं है | कर्ज़ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, चिंताएं रात को सोने नहीं देती | दुखी तो अब भी हैं, यदि थोडा वियोग सहने से सुख मिलते हों तो क्या यह अच्छा नहीं है ?"
" तुम्हारे पिता जी भी … " माँ ने बोलना चाहा |
राधेश्याम ने बात को बीच में काटते हुए कहा – " पिता जी भी विदेश गए थे | जब तक वे वहाँ थे हमारे दिन अच्छे बीते, भले ही हमें उनका प्यार नहीं मिला | अगर उनके साथ वहाँ हादसा न होता तो आज मुझे यूं बेघर होने की नौबत नहीं आती | अब अगर मैं कुछ वर्ष विदेश लगा आया तो आगे का जीवन सुधर जाएगा |"
" लेकिन इन वर्षों में हम कैसे जीएंगे ?" – शारदा और उसकी सास एक साथ बोलीं |
" सुख के लिए दुःख तो उठाना ही पड़ता है | आने वाली पीढियां खुशहाल हों इसके लिए हमें ही कुछ करना होगा |"
" तो इसका मतलब है तुम अपना इरादा नहीं बदलोगे |" - राधेश्याम के ससुर ने हताश होकर कहा |
" मैं इरादा बदलने के लिए तैयार हूँ, आप सब लोग इस देश के हालात बदल दो | भ्रष्टाचार, भाई-भतीजाबाद, लाचारी, गरीबी को जड़ से हटा दो |" - रोष और हताशा मिले स्वर में राधेश्याम ने कहा |
" ये हमारे बस की बात कहाँ है बेटा |"
" फिर आप मुझे भूखा मरने की सलाह क्यों देते हो | हमारे वश में जो है वही क्यों नहीं करने देते | विदेश जाना कोई आसान काम तो नहीं, कितने पापड़ बेले हैं मैंने इसके लिए मैं ही जानता हूँ | जमीन गिरवी अलग से रखनी होगी अब जब सारा काम बन चुका है तो क्यों मेरे मार्ग में रोड़े अटका रहे हो |"
" मगर बेटा …"
" माँ ,अब छोडो भी इसे | रोज़ी रोटी जरूरी है | अगर हमारी किस्मत अच्छी होती तो यहीं नौकरी मिल जाती | अब नहीं मिली तो कडवा घूँट तो पीना ही होगा |"
ये शब्द सुनते ही शारदा उठकर भीतर चली गई | आसुंओं की अविरल धारा उसकी आँखों से बह रही थी | महान भारत के गरीब मध्यम वर्गीय परिवार की सदस्य होने कीमत, रोज़ी-रोटी कमाने की कीमत सबसे ज्यादा उसी को तो चुकानी पड़ रही थी |
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दिलबागसिंह विर्क
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-09-2017) को
"माता के नवरात्र" (चर्चा अंक 2738)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन और समाज को आइना दिखाती कहानी।
बधाई।
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