बुधवार, अक्टूबर 04, 2017

कभी खींच लिया दोस्तों ने, कभी फिसल गए

ये तो ख़बर नहीं, आज गए या कल गए 
ख़ुशी जब मेहमान थी, गुज़र वो पल गए।

उनसे पूछो तुम वफ़ा के मा’ने क्या हैं 
अरमानों को जिनके हमदम कुचल गए।

शिखर पर पहुँचा न गया हमसे बस इसलिए 
कभी खींच लिया दोस्तों ने, कभी फिसल गए।

हमें हराया हालातों से लड़ने की ज़िद ने 
जीत हुई उनकी, जो बचकर निकल गए।

ये दौर, हैरतअंगेज़ कारनामों का है 
यहाँ खरे लुढ़कते रहे, खोटे चल गए

ज़िंदगी ‘विर्क’ इस तरह गुज़रती रही 
फिर ठोकर खाई, जब लगा संभल गए।

दिलबागसिंह विर्क 
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2 टिप्‍पणियां:

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बहुत खूब !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-010-2017) को
"भक्तों के अधिकार में" (चर्चा अंक 2749)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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