मुझे ख़ुदा न समझना, कहा था मैंने मगर
तूने पागल समझा मुझे, किसके कहने पर।
मुझ पर अब ज़रा-सा यक़ीं नहीं रहा तुझको
क्या इससे बढ़कर होगा क़ियामत का क़हर।
बस ये ही बेताब हैं गले मिलने को वरना
नदियों का इंतज़ार कब करता है सागर।
बेवफ़ाई आबे-हयात है तो, हो मुबारक तुझे
मुझे तो मंज़ूर है, पीना वफ़ा का ज़हर।
इसका इलाज तो ढूँढना ही होगा, आख़िर
कब तक डराएगा, तेरे बिना जीने का डर।
तेरी असलियत को जानती है सारी दुनिया
‘विर्क’ यूँ ही अच्छा बनने की कोशिश न कर।
दिलबागसिंह विर्क
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2 टिप्पणियां:
बहुत शानदार अश'आर...वाह्ह्ह👌
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (18-11-2020) को "धीरज से लो काम" (चर्चा अंक- 3889) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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