वो बात-बात पर हँसता है
लोगों को पागल लगता है।
आज हो रहा ये अजूबा कैसे
आँधियों में चिराग़ जलता है।
सिकंदर होगा या फिर क़लंदर
जो दिल में आया, करता है।
वक़्त के साँचे में ढलते सब
क्या वक़्त साँचों में ढलता है ?
सुना तो है मगर देखा नहीं
पाप का घड़ा भरता है।
उसूलों की बात मत छेड़ो
यहाँ पर ‘विर्क’ सब चलता है।
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
वक़्त अपने में सब को ढलता है ...
बहुत ख़ूब लिखा है ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-11-2017) को "लगता है सरदी आ गयी" (चर्चा अंक-2797) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वक़्त के साँचे में ढलते सब
क्या वक़्त साँचों में ढलता है ?
क्या खूब लिखा है आपने विर्क जी��
बहुत सुन्दर
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