तेरी बेरुखी का असर हो गया है शायद
दिल दिल न रहा, पत्थर हो गया है शायद।
जीतने की सब कोशिशें दम तोड़ती रही
हारना मेरा मुक़द्दर हो गया है शायद।
वफ़ा, मुहब्बत, एतबार खो गये हैं कहीं
ईंट-पत्थर का मकां, घर हो गया है शायद।
ख़ुशियों के सब किलों को जीतता जा रहा है
ग़म तो दूसरा सिकंदर हो गया है शायद।
आदमी ने ‘विर्क’ छोड़ दी है आदमियत
इसलिए ख़ुदा का क़हर हो गया है शायद।
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूब !
वाह क्या बात है
सुंदर शब्दों से सजी नायब रचना मन को छू गई
आदमी ने ‘विर्क’ छोड़ दी है आदमियत
इसलिए ख़ुदा का क़हर हो गया है शायद।
बहुत सही आदमियत की कमी है
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-12-2017) को
"रंग जिंदगी के" (चर्चा अंक-2818)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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