शायद इसीलिए हूँ दुनिया से अनजाना-सा
हमसफ़र बना है मेरा एक दर्द दीवाना-सा।
किस चैन की बात करो तुम ऐ दोस्त, जब
दिल छीनकर ले गया, वो शख़्स बेगाना-सा।
भूल सकता था मैं दौरे-मुहब्बत को मगर
रह-रह कर जवां हो जाए ज़ख़्म पुराना-सा।
क़समें खाकर मुकर जाते हैं लोग अक्सर
उसका वा’दा भी लगता है मुझे बहाना-सा।
अब क्या बताएं तुम्हें मंज़र इस इश्क़ का
बढ़कर सज़ा से, लगता था जो नज़राना-सा।
संभाल ही लेते हैं ‘विर्क’ यूँ तो ख़ुद को
बस आदत है, क़दमों का ये डगमगाना-सा।
दिलबागसिंह विर्क
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