ऐ ख़ुदा ! तेरी ख़ुदाई का न रहा डर
दर्द सहा इतना कि हो गया हूँ पत्थर।
वो अच्छाई का लिबास ओढ़े हुए था
तिलमिलाना तो था ही उसे सच सुनकर।
जहाँ से चला था, वहीं लौट आया हूँ
न मैं बदला, न ही बदला मेरा मुक़द्दर।
हालात बदल न पाया बेबस आदमी
रोती रही ज़िंदगी अपने हाल पर ।
वफा-बेवफ़ाई, नफ़रत-मुहब्बत में से
न जाने कब कौन दिखा दे असर।
कैसा हाल है मेरा अब क्या बताऊँ
थोड़ा-थोड़ा ‘विर्क’ रोज़ रहा हूँ मर।
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
वाह्ह...लाज़वाब👌
वाह, बहुत ही सुंदर👏👏👏
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-02-2017) को "कूटनीति की बात" (चर्चा अंक-2883) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर गजल
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