शायद इसीलिए हूँ दुनिया से अनजाना-सा
हमसफ़र बना है मेरा एक दर्द दीवाना-सा।
किस चैन की बात करो तुम ऐ दोस्त, जब
दिल छीनकर ले गया, वो शख़्स बेगाना-सा।
भूल सकता था मैं दौरे-मुहब्बत को मगर
रह-रह कर जवां हो जाए ज़ख़्म पुराना-सा।
क़समें खाकर मुकर जाते हैं लोग अक्सर
उसका वा’दा भी लगता है मुझे बहाना-सा।
अब क्या बताएं तुम्हें मंज़र इस इश्क़ का
बढ़कर सज़ा से, लगता था जो नज़राना-सा।
संभाल ही लेते हैं ‘विर्क’ यूँ तो ख़ुद को
बस आदत है, क़दमों का ये डगमगाना-सा।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-03-2017) को "जला देना इस बार..." (चर्चा अंक-2897) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह, बहुत खूब
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-03-2017) को "जला देना इस बार..." (चर्चा अंक-2897) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रंगों के पर्व होलीकोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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