मसीहा बनने की कहाँ थी हैसियत
मुझे मेरे ग़म से ही मिली न फ़ुर्सत।
मुहब्बत के दरिया में फैलाए ज़हर
हमारे दिलों की ये थोड़ी-सी नफ़रत।
मौक़ा मिलते ही उड़ाया है मज़ाक़
यूँ तो लोगों ने दी है बहुत इज़्ज़त।
दौरे-ग़म में जीना आसां तो नहीं
हम जी रहे हैं, क्या ये कम है हिम्मत।
मेरा ये हुनर तो किसी काम का नहीं
करता रहता हूँ बस लफ़्ज़ों से कसरत।
वो जुनूं का दौर था ‘विर्क’, उसका क्या
अब तो सोचता हूँ, क्यों की थी उल्फ़त ।
दिलबागसिंह विर्क
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1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (11-05-2018) को "वर्णों की यायावरी" (चर्चा अंक-2967) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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