क्या ग़म है गर तख़्तो-ताज नहीं
इस ज़िंदगी से बड़ा एजाज़ नहीं।
कैसे बताऊँ मैं हाल दिल का
ज़ुबां तो है मगर अल्फ़ाज़ नहीं।
चलना तो बस शौक है मेरा
मैं मंज़िलों का मोहताज नहीं।
ख़ुदा सलामत रखे क़दमों को
क्या है गर पंख नहीं, परवाज़ नहीं।
चुपके-चुपके गुज़रता रहता है
वक़्त करता कभी आवाज़ नहीं।
ख़ाकों में तस्वीरें बदलती रहें
जो कल थी ‘विर्क’, वो आज नहीं।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-06-2018) को "सारे नम्बरदार" (चर्चा अंक-3009) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह
वाह ,बहुत खूब ।
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