तेरे आने का इंतज़ार कब है
मुहब्बत तो बस मेरा मज़हब है।
बहते अश्कों को छुपाना कैसा
छलकता है वही, जो लबालब है।
कुछ तो मुझे बेवफ़ा न होना था
कुछ याद का पहरा रोज़ो-शब है।
कुछ-न-कुछ चलता ही रहे ज़ेहन में
सोच का सफ़र कितना बेमतलब है ।
वस्लो-हिज्र ज़िंदगी के पहलू दो
ग़म में डूबे रहना बेसबब है ।
मंज़िल का ‘विर्क’ नामो-निशां नहीं
ये मुहब्बत का सफ़र भी ग़ज़ब है।
दिलबागसिंह विर्क
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1 टिप्पणी:
वाह वाह क्या कहने।
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