आँखें रोती हैं और ज़ख़्म मुसकराते हैं
जाने वाले अक्सर बहुत याद आते हैं।
दिन में हमसफ़र बन जाती हैं तन्हाइयाँ
और रातों को हमें उनके ख़्वाब सताते हैं।
ख़ुद की परछाई में दिखे सूरत उनकी
दिल में रहने वाले कब भुलाए जाते हैं।
जिन पर चले थे हम कभी मुसाफ़िर बनके
यूँ लगे जैसे हमें वो रास्ते पास बुलाते हैं।
शिकवा करने की हिम्मत भी नहीं होती
कभी-कभी ख़ुद को इतना बेबस पाते हैं।
कुछ ऐसी उलझी ज़िंदगी कि समझ न आए
जीते हैं हम ‘विर्क’ या बस दिन बिताते हैं।
दिलबागसिंह विर्क
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5 टिप्पणियां:
बेहतरीन
मर्मस्पर्शी रचना
बहुत सुन्दर ,..
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत सुंदर रचना।
गहरे भाव समेटे।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नौ दशक पूर्व का काकोरी काण्ड और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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