पहले ही छोटा था मैं, और छोटा हो गया
इसीलिए मेरा ग़म मुझसे बड़ा हो गया।
किसी को पूजने की ग़लती न करो लोगो
जिसको भी पूजा गया, वही ख़ुदा हो गया।
तमन्ना रखे है कि मिले इसे कुछ क़ीमत
हैरां हूँ, मेरी वफ़ा को ये क्या हो गया।
सबको हक़ नहीं मिलता दलील देने का
उसने जो भी कहा, वही फ़ैसला हो गया।
उल्फ़त को सलीब मिले, नफ़रत को ताज
इस दौर में ये कैसा हादसा हो गया ?
ज़माने को सुकूं मिलता है तो ठीक है
चलो मान लिया, ‘विर्क’ बेवफ़ा हो गया।
दिलबागसिंह विर्क
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6 टिप्पणियां:
...नफरत को ताज ...बहुत बढ़िया !
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ अगस्त २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बढ़िया !
इस रचना का हर एक शेर मन को छू गया है। बहुत खूब ! सादर।
वाह बहुत खूब उम्दा गजल।
वाह
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