चाहा था जिनको दिलो-जां से मैंने हयात की तरह
उनसे ही मिले हैं ज़ख़्म मुझे सौग़ात की तरह।
तक़दीरों और तदबीरों के रुख अब बदल चुके हैं
वो आए थे मेरी ज़िंदगी में, वारदात की तरह।
जब-तब मेरी ख़ुशियों को उजाड़ने चले आते हैं
ये मेरे अश्क भी हैं, बेमौसमी बरसात की तरह।
ताउम्र चुभते रहते हैं सीने पर नश्तर बनकर
ग़म ज़िंदगी के होते नहीं, बीती रात की तरह।
हाले-मुहब्बत जानना है तो सुनो, बताता हूँ
ये है ख़्वाब में महबूब से मुलाक़ात की तरह।
वो अगर आज़माते मुझे तो पता चलती असलियत
ख़ालिस मिलनी थी मेरी वफ़ा ‘विर्क’ वफ़ात की तरह।
दिलबागसिंह विर्क
*****
4 टिप्पणियां:
वफा किसी को मिलती नहीं क्यूंकि
कोई इस तक पहुंचता नहीं.. हर कोई जल्दी में है...आसानी से वफ़ा मिल जाये ऐसा ही चाहता है.
आपकी सरल सी गजल बेहद सटीक और बेहतरीन है.
बेकरारी से वहशत की जानिब
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-09-2018) को "हिन्दी दिवस पर हिन्दी करे पुकार" (चर्चा अंक-3094) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
क्या खूब लिखा हैं जनाब
बधाई
बहुत सुन्दर
एक टिप्पणी भेजें