बुधवार, नवंबर 21, 2018

दिल की ज़मीं होती कभी बंजर नहीं

मुहब्बत की राह चलें वो, जिन्हें कोई डर नहीं 
इसमें दुश्वारियाँ हैं बहुत, आसां ये सफ़र नहीं। 

ख़ुदा की हर नियामत मौजूद है यहाँ, मगर 
जन्नत लगे दुनिया, दिखते ऐसे मंज़र नहीं।

ख़ुद पर करो यक़ीं, यहाँ रहबर हैं वही लोग 
जो राह में हैं, मंज़िल की जिन्हें ख़बर नहीं। 

प्यार के बादल से वफ़ा का पानी तो बरसाओ 
देखना, दिल की ज़मीं होती कभी बंजर नहीं। 

उन्हें क्यों होगा दर्द किसी के उजड़ने का 
दहशतगर्दों का कोई मुल्क नहीं, घर नहीं। 

दौलत, शौहरत, ख़ुदग़र्ज़ी के पर्दे हटाओ 
दिल को दिल ही पाओगे, ‘विर्क’ पत्थर नहीं।

दिलबागसिंह विर्क 
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2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (23-11-2018) को "कार्तिकपूर्णिमा-गुरू नानकदेव जयन्ती" (चर्चा अंक-3164) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
"कार्तिकपूर्णिमा-गुरू नानकदेव जयन्ती" की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर

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