कभी तुझे याद करता
हूँ, कभी तुझे भूलता हूँ
ये न पूछ मुझसे,
मैं कितना परेशां हुआ हूँ।
मेरे ख़्यालों,
मेरे ख़्वाबों का मालिक तू है
मेरा वुजूद कहाँ है,
अक्सर यही सोचता हूँ।
दीवानगी इसकी न जाने
कितना रुसवा करेगी
मानता ही नहीं ये,
इस दिल को बहुत रोकता हूँ।
लफ़्ज़ों के मा’नी बदल जाते हैं सुनते-सुनते
इसी डर से मैं
कमोबेश ख़ामोश रहा हूँ ।
पत्थरों के पूजने पर
मुझे कोई एतराज नहीं
मगर इससे पहले मैं
संगतराश को पूजता हूँ।
दूरियाँ-नजदीकियाँ ‘विर्क’ कोई मुद्दा नहीं होती
कल भी चाहता था तुझे,
मैं आज भी चाहता हूँ।
2 टिप्पणियां:
वाह बहुत खूब।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (16-11-2018) को "भारत विभाजन का उद्देश्य क्या था" (चर्चा अंक-3157) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक टिप्पणी भेजें